Friday, November 14, 2014

सुरेंद्र कोली की फांसी से उठे कुछ सवाल पंकज बिष्ट

Our most respected Brother and eminent Asian writer Pankajda has sent this article for publication on social media this morning.It is very relevant to highlight the current status of rule of law and constitutional provision and democratic space altogether.
I request all friends on social media to publish it and others should circulate this to express solidarity with civic and human rights.
thanks.

Pl publish.
Pl circulate.

सुरेंद्र कोली की फांसी से उठे कुछ सवाल

पंकज बिष्ट

निठारी कांड हमारे समाज का एक बहुआयामीय संकट है। अगर वह मात्रा सुरेंद्र कोली नाम के एक आदमी का अपराध है तो सवाल है कोई आदमी क्यों कर इस हद तक गिर सकता है कि आदमी ही को मारकर खाने लगे। ऐसे उदाहरण तो हैं कि आदमी ने आदमी को खाया, पर ये उदाहरण सामान्यतः भूख से जुड़े हैं। इस संदर्भ में भी जो किस्सा सबसे ज्यादा चर्चित है वह है लातिन अमेरिकी देश उरुगुए की एयर फोर्स की फ्लाट नंबर 571 का एंडीज पर्वत श्रंृखला में 13 अक्टूबर 1972 को दुर्घटनाग्रस्त होना। इसमें कुल 45 यात्री सवार थे। इन में से आधे से ज्यादा तत्काल मारे गए तथा कई और बाद में ठंड आदि से मर गए। पर 72 दिन बाद भी 16 यात्री बचा लिए गए। यह मिरेकल आफ एंडीज यानी एंडीज का चमत्कार कहलाता है। सवाल उठा कि लगभग 11 हजार फिट की ऊंचाई पर जहां खाने को घास तक नहीं थी ये कैसे बचे। जांच करने पर पता चला कि इन बचे लोगों ने अपने मरे हुए साथियों को खाकर अपना जीवन बचाया था।  

इसलिए सुरेंद्र कोली के अपराध की यह विभत्सता, बर्बरता और अमानवीयता असामान्य तो है ही साथ ही हमारे क्या दुनिया के किसी भी कोने से अब तक इसे तो छोड़िये लातिन अमेरिकी घटना के समानंातर भी कोई घटना शायद ही सुनने में आई हो। तब अगर यह कोई एक नई किस्म की मानसिक व्याधि है तो भी यह देखने की बात है कि आखिर यह हुई कैसे, क्योंकि कोई भी घटना, चाहे वह कितनी भी अतिरेक भरी हो, अपने में ही कारण और अपने में ही परिणाम नहीं हो सकती। यानी इसे एक घटना मान कर नहीं छोड़ा जा सकता।  दूसरी ओर इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती है कि कोली पिछले आठ वर्षों से जेल में है और वहां से उसके व्यवहार में किसी भी तरह की मानसिक या अन्य किसी तरह की असमान्यता की कोई शिकायत नहीं है। उल्टा उसके व्यवहार की प्रशंसा ही है।

और अगर यह सही नहीं है, जैसा कि अब कई कानूनविदों का कहना और समाचारपत्रों में छपी रिपोर्टों से लगने लगा है, तो इसकी जटिलता और भी कई गुना भयावह है। ये रिपोर्टें कोई ऐरे-गैरे अखबारों या पत्रा- पत्रिकाआकों में नहीं छपी हैं बल्कि 'द हिंदू', 'द हिंदुस्तान टाइम्स', 'फ्रंटलाइन' और 'तहलका' जैसी प्रतिष्ठित पत्रा-पत्रिकाओं ने छापी हैं। मात्रा इसलिए नहीं कि यह न्यायिक असावधानी से एक आदमी के किसी भी समय फांसी पर लटका दिए जाने का मसला है बल्कि यह मानव अंगों के एक ऐसे संगीन और संगठित अपराध की ओर इशारा करता है जिसमें समाज के कई महत्वपूर्ण घटकों के संलिप्त होने की आशंका व्यक्त की जा रही है। विशेष कर चिकित्सा व्यवसाय से जुड़े लोग और पुलिस व्यवस्था, जिनकी भूमिका पर अब लगातार सवाल उठाये जा रहे हैं।  सत्य यह है कि यह शंका सबसे पहले केंद्रीय सरकार के महिला व बाल विकास मंत्रालय द्वारा मंजुला कृष्णन के नेतृत्व में गठित चार वरिष्ठ अधिकारियों की समिति ने सन 2007 में अपनी 35 पृष्ठों की रिपोर्ट में प्रकट की थी।

जहां तक भारतीय पुलिस का सवाल है उसका भ्रष्टाचार और अपराधीकरण कोई नई बात नहीं है। पर ज्यादा चिंता का कारण चिकित्सा व्यवसाय के शंका के घेरे में आना है। अगर वास्तव में ऐसा है तो यह समाज में पहले से ही इस व्यवसाय को लेकर बढ़ रही अविश्वसनीयता और असंतोष को नया आयाम प्रदान करेगा।  और इस बेचैनी को गलत भी नहीं माना जा सकता है, क्योंकि चिकित्सा व्यवसाय के भ्रष्टाचार से समाज का कोई भी व्यक्ति सुरिक्षत नहीं रह पायेगा। मानव अंगों का व्यापार कोई सामान्य अपराधिक मामला नहीं है, इसके नैतिक और सामाजिक दुष्परिणाम निश्चय ही दूरगामी होंगे।

अगर ऐसा नहीं है और ये सिर्फ शंकाएं हैं, तो भी ये शंकाएं चिकित्सा व्यवसाय को बदनाम करने और उसकी विश्वसनीयता को तहस-नहस करने में बहुत खतरनाक भूमिका निभाएंगी। हमारे देश में जहां आधुनिक चिकित्सा को लेकर पहले ही कई तरह की गलत फहमियां विद्यमान हैं, यह उन्हें निश्चय ही बढ़ाएंगी। इसे देखते हुए भी जरूरी है कि निठारी कांड से जुड़ी जितनी भी शंकाएं हैं उनका हर हालत में निवारण होना चाहिए। इसी लिए महत्वपूर्ण है कि जब तक इस कांड के सभी मुकदमे निपट नहीं जाते और दूध का दूध और पानी का पानी नहीं हो जाता, सुरेंद्र कोली को फांसी पर लटकाने का औचित्य नहीं बनता। इस कांड से जुड़े अभी सात मामले ऐसे हैं जिनका फैसला होना बाकी है। इन सभी मामलों में कोली सह अभियुक्त है। दूसरे शब्दों में ये मामले एक ही श्रृंखला के अपराध की कड़ी हैं। इसीलिए अगर कोली को फांसी दे दी जाती है तो जिन मुकदमों का फैसला होना बाकी है उनमें कोली का बिना स्वयं का कोई बचाव किए अपराधी मान लिया जाना निश्चित है बल्कि यह बहुत संभव है कि मामले से जुड़े और न जाने कितने तथ्य अनदेखे रह जाएं।

चूंकि कि ये सब मामले एक दूसरे से जुड़े हैं ऐसे में प्रश्न उठता है क्या इनका एक दूसरे के परिणामों पर असर पड़ने से इंकार किया जा सकता है? मान लीजिए, जिससे इंकार नहीं किया जा सकता, मुकदमों के दौरान ऐसा मोड़ आ जाए जो पूरे कांड को ही एक नया आयाम देने की सामर्थ्य रखता हो तब क्या होगा? जैसे कि दैनिक 'अमर उजाला' (29 जनवरी 2007) में ही छपी एक रिपोर्ट में रिंपा हलदर के बारे में यह आशंका प्रकट की गई थी कि उसकी हत्या नहीं हुई है बल्कि उसने प्रेमी के साथ भाग कर विवाह कर लिया है और नेपाल में बस गई है।

इस मामले का व्यवहारिक पक्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। यह मामला एक मालिक और उसके घरेलू नौकर के चारों ओर घूम रहा है। दोनों ही अभियुक्त हैं। पर नौकर को एक मामले में फांसी की सजा कर दी गई है और किसी भी समय लटकाया जा सकता है जबकि मालिक को पांच मामलों में जमानत दे दी गई है। हम इस मामले में हुए न्याय पर प्रश्न नहीं उठा रहे हैं। पर आप उस सार्वजनिक  धारणा ( परसेप्शन)  का क्या करेंगे जिसके अनुसार आजादी के बाद से अब तक, उच्च वर्ग तो छोड़िए किसी मध्यवर्ग तक के आदमी को फांसी नहीं हुई है फिर चाहे उसने कितना भी संगीन अपराध क्यों न किया हो। फांसी सदा दलितों, आदिवासियों और गरीबों को दी गई है। इसी सप्ताह के शुरू में फांसी के खिलाफ जारी की गई अमर्त्य सेन जैसे अनेकों बुद्धिजीवियों की अपील में भी यह बात कही गई है।

जिस तीव्रता से सुरेंद्र कोली को फांसी की सजा सुनाई गई और उसे उच्च न्यायालय, सर्वोच्च न्यायालय, गृह मंत्रालय तथा राष्ट्रपति तक के यहां से अनुमोदित कर दिया गया है वह अपने आप में चकित करने वाला है। इतनी तीव्रता से तो आतंकवादियों तक को फांसी नहीं दी गई। संसद भवन पर आक्रमण करने का मामला, जो कि भारत के इतिहास में सबसे बड़ा आतंकवादी मामला माना जाता है सन 2001 में हुआ था और इसके लिए सजा पानेवाले अपराधी अफजल गुरू को फांसी फरवरी 2013 में दी गई। निठारी कांड 2005 में सामने आया था।  

इस कोण से अगर देखा जाए तो इसका वह पक्ष उभर कर आता है जो भारतीय समाज में मालिक और नौकर के संबंधों को उजागर कर देता है। यह किसी से छिपा नहीं है कि हमारे यहां घरेलू नौकरों से जो व्यवहार किया जाता है वह अक्सर अमानवीयता की हद तक गिरा हुआ होता है। उनका हर तरह का उत्पीड़न फिर चाहे शारीरिक हो, मानसिक या यौन शोषण हो आम बात है। अपनी गरीबी के कारण वह अक्सर मालिकों के लिए गैरकानूनी और अमानवीय काम भी करने को मजबूर होते हैं। मालिकों की जगह नौकरों का सजा काटना भी कोई छिपा नहीं है। इसका ज्ज्वलंत उदाहरण है अभिनेत्री प्रिया राजवंशी की हत्या का जिसमें एक नौकरानी का इस्तेमाल किया गया था। यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि घरेलू और सस्ते नौकर सामान्यतः उत्तराखंड, बिहार, झारखंड और बंगाल आदि से दिल्ली, हरियाणा, पंजाब जैसे समृद्ध इलाकों में नौकरी की तलाश में आते हैं। कोली, जो उत्तराखंड के एक गरीब दलित परिवार से सबंध रखता है, के दंडित होने का एक आयाम इन गरीब लोगों को जाने-अनजाने अपराधों के लिए इस्तेमाल किए जाने, इनके अमानवीयकरण और कुकृत्यों में मोहरा बनाने की संभावनाओं की ओर भी बड़ा संकेत है।

इसका अंतिम आयाम मूलतः नैतिक और आदर्शवादी है। वह है मृत्युदंड के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चल रहा आंदोलन जिसमें नैतिक और व्यावहारिक स्तर पर इस दंड की वैधता और प्रासंगिकता को चुनौती दी जा रही है और सवाल उठाया जा रहा है कि अगर निर्णय में जरा भी खामी रह गई, और इसकी संभावना लगातार प्रकट की जा रही है, तो न्याय प्रणाली एक व्यक्ति की मौत की कैसे भरपाई करेगी! इसलिए अचानक नहीं है कि दुनिया के 141 देशों ने मृत्युदंड को खत्म कर दिया है। भारत उन गिने चुने देशों में से है जहां मृत्युदंड अभी भी जारी है। इस तर्क को देखते हुए कोली को फांसी पर चढ़ाए जाने की जल्दी क्या वाजिब कही जा सकती है?

जैसा कि कहा जाता है मात्रा न्याय होना जरूरी नहीं है न्याय का दिखना भी जरूरी है। सुरेंद्र कोली वाले मामले में न्याय हुआ हो सकता है पर क्या, जिस तरह से सवाल उठ रहे हैं, वह दिख भी रहा है?


नोटः कृपया इस लेख को अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचाने में सहयोग करें।


   

     


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