अंबेडकर कोई खूंटी नहीं हैं कि हम उनसे बंधे हों और अपने वक्त की चुनौतियों को संबोधित ही नहीं कर सकें!
हम न हिजली तक पहुंचते हैं और न आजादी के परवानों की कोई याद हमारी जेहन में हैं।हम तो उन्हीं गद्दारों के गुलाम प्रजाजन हैं जो हर हाल में तब अंग्रेजों का साथ दे रहे थे तो आज वैश्विक साम्राज्यवाद के नयका जमींदार राजा महाराजा नवाब सिपाहसालार वगैर वगैरह हैं और यही पेशवा राज है।
बहुजन राजनीति में जो गुलामी का नयका वेद और विचारधारा का चलन है,उसके विपरीत किसानों और आदिवासियों का,दलितों और पिछड़ों,अल्पसंख्यकों और खासतौर पर महिलाओं के प्रतिरोध का सिलसिला अस्पृश्य भूगोल में दरअसल कभी थमा नहीं है।यही उनकी भाषा,लोक,संस्कृति वगैरह वगैरह है और उनकी पूरी विरासत आजादी की है,गुलामी की हरगिज नहीं।
अकेले मेदिनीपुर में दलित मातंगिनी हाजरा के अलावा इस मुल्क की आजादी की लड़ाई लड़ रही महिलाएं बाकी देश से कहीं जियादा हैं और उनमें ज्यादातर या तो दलित है या फिर पिछड़ी या आदिवासी,जिनके नाम तक बाकी भारत के लोग नहीं जानते।
हकीकत यह है कि पलाशी की हार के तुरंत बाद चुआड़ विद्रोह से लेकर सन्यासी विद्रोह,नील विद्रोह,कोल विद्रोह,भील विद्रोह,मुंडा विद्रोह,संथाल विद्रोह,हो विद्रोह के साथ साथ देश के चप्पे चप्पे में विदेशी हुकूमत के खिलाफ आदिवासी किसान विद्रोह का सिलसिला जारी रहा है और 1857 की लड़ाई भी उसी सिलसिले की एक कड़ी है।आदिवासी और किसान हथियार डालते नहीं है,यह मेदिनीपुर और आदिवासी भूगोल की विरासत है आजादी की।
पलाश विश्वास
पिछले दिनों बाजीराव मस्तानी के बहाने पेशवा राज को बेनकाब करने के अपराध में मेरा लिखा पिर 1984 के वाइरस का शिकार हो रहा है बार बार।
हम प्रिंट से बाहर हैं करीब डेढ़ दशक से और अब वैकल्पिक मीडिया में भी आबोहवा बहिस्कार का है।हम तड़ीपार नये सिरे से हैं।इसलिए कहना मुश्किल है कि मेरा बोला लिखा आप तक पहुंचेगा कि नहीं।
बाजीराव मस्तानी के राजकाज का चमत्कार है कि सत्तापक्ष की नीतियों की आलोचना सहिष्णुता के सौंदर्यशास्त्र से बाहर है।रामदरश मिश्र तजिंदगी लिखते रहे लेकिन साहित्य अकादमी पुरस्कार उन्हें इसी साल मिला जबकि वे नब्वे पार हैं।
पहला साक्षात्कार उनने सहिष्णुता का महिमामंडन सनी लिओन तर्ज पर किया।हालांकि साहित्य अकादमी ने उनसे लिखवाकर लिया नहीं कि मौका मिलने पर वे पुरस्कार वापसी हरगिज नहीं करेंगे।यह भी सनी सहिष्णुता का नजारा है।
समांतर सिनेमा के कालजयी फिल्मकार अपने साथियों के साथ खड़े हुए नहीं हैं और पुरस्कार वापसी के बारे में उनकी खुली राय रही है कि यह गलत है।वे सेंसर बोर्ड संबंधित विशेषज्ञ कमिटी के के मुखिया बना दिये गये हैं।
उनके कृतित्व व्यक्तित्व की यह अभूतपूर्व मान्यता उतनी ही भव्य है जितनी कि मोदी चमत्कारी पेशवा राज की दास्तां है.जो पता नहीं किस इतिहास से खरोंचकर इतिहास बनाकर पेश है और जनता जितनी सिटी बजा रही है,उससे धुआंधार सिटियां मीडिया में बज रही है।
जाहिर है कि हम अति तुच्छ लेखन करते हैं क्योंकि हम जिन मुद्दों और मसलों पर लिखते हैं,वह कुल मिलाकर मुक्त बाजार और नवउदारवाद का विरोध के सिवाय कुछ नहीं है।
हमारी भाखा अशुध है और सौंदर्यशास्त्र और व्याकरण वगैरह की शुद्धता के खिलाफ है।
यह कुलीन सत्तावर्ग की मेहरबानी है कि हम अछूत कुनबी कुल के होते हुए दस्तूर के खिलाफ चार दशकों से लिखते पढ़ते बोलते रहे हैं।वरना हमें तो अपने ही खेत पर खेत होना था।पहले इजाजत थी तो हम शुक्रगुजार है।अब नहीं है,तो यह सनी सहिष्णुता 1984 है।
इसलिए चूंकि कालजयी बन जाने की कोई आशंका नहीं है,आप चाहे तो हमें जेल भी सकते हैं।बाकी आपकी मर्जी।
चूंकि हिंदी में लिखा कहीं पहुंच नहीं रहा है,तो हम हिंदी के पाठकों से माफी चाहेंगे कि हम पहले जैसे लिखते बोलते रहे हैं,उसी लीक पर चलने को मजबूर है।
सृजनशील रचनाधर्मिता को तो हमने सन 2000 से पहले ही तिलांजलि दे दी है।
अब पत्रकारिता को भी आखिरी सलाम कहने की बारी है।
बहरहाल बांग्ला और अंग्रेजी के अलावा अन्य भाषाओं में हम चीखें दर्ज कराने का धतकरम चंडालधर्म निभाते रहेंगे और वीडियो जरिये आपको संबोधित भी करते रहेंगे।
वैकल्पिक मीडिया मरणासण्ण है जिसने हमें आक्सीजन दिया करीब दो दशक से।हम उन तमाम मित्रों के आभारी हैं,जो हमें हवा पानी देते रहे हैं।
अब उनकी भी सांसें टूटने लगी हैं तो हमें हिंदी में लिखते रहने की बुरी आदत छोड़ ही देनी चाहिए।लेकिन कमसकम चार दशक पुरानी आदत है।छूटते छूटते आपकी नींद में खलल का सिलसिला बना रहेगा या नहीं,इसकी गारंटी भी हम दे नहीं सकते।
सविता बाबू को बहुत शिकायत थी कि पच्चीस साल बंगाल में हो गये,दीघा अभी देखा नहीं है।तो हम उनके साथ मेदिनीपुर और जंगल महल में आजादी के जज्बे और विरासत का जायका लेकर भी आये हैं।
आज निरंतर बिजली के व्यवधान से गुड़गोबर हो गया।जो दो घंटे का वीडियो हमने मेदिनीपुर,जंगल महल और भारतभर के आदिवासी दुनिया का रिकार्ड किया था,वह सिरे से गायब है।
बहरहाल दुनियाभर में जबकि किसानों ने विकास के नाम अपने गांव,खेत, खलिहान,अपना वजूद तक की बलि चढ़ाने में कोताही नहीं की।लातिन अमेरिका,यूरोप,अफ्रीका और एशियाई किसानों की अविराम आत्महत्या के मुकाबले हम उन लोगों का किस्सा बताने जा रहे हैं जिनकी भाषा अलग है और तेवर भी अलग हैं।
बहुजन राजनीति में जो गुलामी का नयका वेद और विचारधारा का चलन है,उसके विपरीत किसानों और आदिवासियों का,दलितों और पिछड़ों,अल्पसंख्यकों और खासतौर पर महिलाओं के प्रतिरोध का सिलसिला अस्पृश्य भूगोल में दरअसल कभी थमा नहीं है।यही उनकी भाषा,लोक,संस्कृति वगैरह वगैरह है और उनकी पूरी विरासत आजादी की है,गुलामी की हरगिज नहीं।
अकेले मेदिनीपुर में दलित मातंगिनी हाजरा के अलावा इस मुल्क की आजादी की लड़ाई लड़ रही महिलाएं बाकी देश से कहीं जियादा हैं और उनमें ज्यादातर या तो दलित है या फिर पिछड़ी या आदिवासी,जिनके नाम तक बाकी भारत के लोग नहीं जानते।
हमने उन तमाम महिलाओं का चेहरा आज के वीडियो में दर्ज कराये थे,दिन्हें पर रिकार्ड कराना होगा।
आदिवासियों ने इस देश में तो क्या पूरी दुनिया में कहीं गुलामी की जंजीरों से खास प्यार नहीं किया है।हम 1857 की लड़ाई को आजादी की पहली लड़ाई बताते अघाते नहीं है।
हकीकत यह है कि पलाशी की हार के तुरंत बाद चुआड़ विद्रोह से लेकर सन्यासी विद्रोह,नील विद्रोह,कोल विद्रोह,भील विद्रोह,मुंडा विद्रोह,संथाल विद्रोह,हो विद्रोह के साथ साथ देश के चप्पे चप्पे में विदेशी हुकूमत के खिलाफ आदिवासी किसान विद्रोह का सिलसिला जारी रहा है और 1857 की लड़ाई भी उसी सिलसिले की एक कड़ी है।आदिवासी और किसान हथियार डालते नहीं है,यह मेदिनीपुर और आदिवासी भूगोल की विरासत है आजादी की।
हम शुरुआत चुआड़ विद्रोह से कर रहे थे,जिसे पिर रिकार्ड कराना है और नंदीग्राम आंदोलन तक के सारे किस्से कहीं छपे न छपे,कहीं दीखे न दीखे,हमारे सिलसिलेवार प्रवचन में आप देखना चाहें तो देखते रहें।
इसी यात्रा का एक पड़ाव खड़गपुर आईआईटी में रहा।जहां बाबासाहेब डा.अंबेडकर की इकलौती पोती भाउसाहेब यशवंत अंबेडकर की इकलौती बेटी रमा अंबेडकर का बसेरा है,जिनके पति हमारे आदरणीय मित्र आनंद तेलतुंबड़े हैं।
हमने एक दिन और एक रात उनके साथ बिताया और उनकी मेजबानी को हम किसी साहित्य अकादमी ज्ञानपीठ पुरस्कार से कम नहीं समझते।
आनंद के सारे आलेख हमारे युवा मित्र रेयाज हिंदी में लगातार अनूदित करते रहे हैं।उन्हें सहेजकर संपादित करके रुबीना की पुस्तक आ गयी।इसके साथ ही आरक्षण के ताजा स्टेटस पर उऩका लंबा आलेख मेइन स्ट्रीम के वार्षिक अंक में छपा है,जिसका हिंदी अनुवाद रुबीना की किताब में है।
हिजली बैरक में भारत के स्वतंत्रता सेनानियों को बंदी रखकर यातनाएं दी जाती थीं और 21आदिवासियों को इसी कैंपस के पास लोधाशुली गांव में अंग्रेजों ने शुली पर चढ़ा दिया था चुआड़ विद्रोह के सिलसिले में वैसे ही मेदिनीपुर के पास शालबनी में थोक भाव से चुआड़ आदिवासियों और गैर आदिवासियों के फांसी डांगार माठ में फांसी पर लचका दिया था अंग्रेजों ने।
हिजली यातनागृह में दो कैदियों को गोली से उड़ाया गया तो नेताजी वहीं पहुंचे थे और टैगोर भी गरजे थे।
आजाद भारत में अव्वल शिक्षा संस्थान खड़गपुर आईआईटी उसी हिजली यातनागृह परिसर का रुपांतरण है और हम न हिजली तक पहुंचते हैं और न आजादी के परवानों की कोई याद हमारी जेहन में हैं।
हम न हिजली तक पहुंचते हैं और न आजादी के परवानों की कोई याद हमारी जेहन में हैं।हम तो उन्हीं गद्दारों के गुलाम प्रजाजन हैं जो हर हाल में तब अंग्रेजों का साथ दे रहे थे तो आज वैश्विक साम्राज्यवाद के नयका जमींदार राजा महाराजा नवाब सिपाहसालार वगैर वगैरह हैं और यही पेशवा राज है।
हमें मस्तानी की प्रेमकथा याद आती है लेकिन देश को आजाद कराने के लिए सबकुछ न्यौच्छावर कर देने वाले स्वतंत्रता सेनानी स्त्री पुरुषों की याद हरगिज नहीं आती।उन किशोरों की भी याद नहीं आती,जो हंसते हंसतेफांसी के फंदे पर चढ़ गये।
ताम्रलिप्त का इतिहास अलग है।गांधी भी महिषादल पहुंचे थे।
रमा और आनंद तेलतुंबड़े सीधे बाबासाहेब के परिवार के लोग हैं लेकिन बाबा साहेब के अंध भक्त नहीं हैं।उनकी सोच वैज्ञानिक है।
इस सिलसिले में आनंद का कहना है कि हमें अपने पुरखों और बुजुर्गों का शुक्रगुजार होना चाहिए।बाबासाहेब का योगदान हम भुला नहीं सकते।लेकिन बाबासाहेब कोई खूंटी नहीं हैं जिनसे बंधकर हम मौजूदा हालात,वक्त और चुनौतियों से लड़ने का बाबासाहेब के मिशन को तिलांजलि दे दें।
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