क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे? - बाबासाहेब आंबेडकर
वॉयसफियरलेस ब्लॉग ने कुछेक संस्कृत ग्रंथों और प्राचीन पाठों के उन अंशों को उद्धृत किया है, जिनमें ब्राह्मणों और व्यापक समाज द्वारा गोमांस खाने का जिक्र किया गया है. इस पोस्ट का मुख्य हिस्सा वो है, जिसमें इस मुद्दे पर बाबासाहेब अंबेडकर के लेख के कुछ अंश दिए गए हैं. ब्लॉग से साभार.
महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशस्वी बना. महाभारत, वन पर्व (अ. 208 अथवा अ.199) में आता है
राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्य वै द्विज
द्वे सहस्रे तु वध्येते पशूनामन्वहं तदा
अहन्यहनि वध्येते द्वे सहस्रे गवां तथा
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः
अतुला कीर्तिरभवन्नृप्स्य द्विजसत्तम
-महाभारत, वनपर्व 208 199/8-10
अर्थात राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे. प्रतिदिन दो हजार गौएं काटी जाती थीं मांस सहित अन्न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई. इस वर्णन को पढ कर कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि गोमांस दान करने से यदि राजा रंतिदेव की कीर्ति फैली तो इस का अर्थ है कि तब गोवध सराहनीय कार्य था, न कि आज की तरह निंदनीय
महाभारत:
गौगव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोच्यते
–अनुशासन पर्व, 88/5
अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है
पंडित पांडुरंग वामन काणे ने लिखा है:
'ऐसा नहीं था कि वैदिक समय में गौ पवित्र नहीं थी, उसकी 'पवित्रता के ही कारण वाजसनेयी संहिता (अर्थात यजूर्वेद) में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिए।' –धर्मशास्त्र विचार, मराठी, पृ 180)
मनुस्मृति:
उष्ट्रवर्जिता एकतो दतो गोव्यजमृगा भक्ष्याः
–मनुस्मृति 5/18 मेधातिथि भाष्य
ऊँट को छोडकर एक ओर दांवालों में गाय, भेड, बकरी और मृग भक्ष्य अर्थात खाने योग्य है
रंतिदेव का उल्लेख महाभारत में अन्यत्र भी आता है.
शांति पर्व, अध्याय 29, श्लोक 123 में आता है कि राजा रंतिदेव ने गौओं की जा खालें उतारीं, उन से रक्त चूचू कर एक महानदी बह निकली थी. वह नदी चर्मण्वती (चंचल) कहलाई.
महानदी चर्मराशेरूत्क्लेदात् संसृजे यतः
ततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता सा महानदी
कुछ लो इस सीधे सादे श्लोक का अर्थ बदलने से भी बाज नहीं आते. वे इस का अर्थ यह कहते हैं कि चर्मण्वती नदी जीवित गौओं के चमडे पर दान के समय छिड़के गए पानी की बूंदों से बह निकली.
इस कपोलकप्ति अर्थ को शाद कोई स्वीकार कर ही लेता यदि कालिदास का 'मेघदूत' नामक प्रसिद्ध खंडकाव्य पास न होता. 'मेघदूत' में कालिदास ने एक जग लिखा है
व्यालंबेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन्
स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रंतिदेवस्य कीर्तिम
यह पद्य पूर्वमेघ में आता है. विभिन्न संस्करणों में इस की संख्या 45 या 48 या 49 है.
इस का अर्थ हैः "हे मेघ, तुम गौओं के आलंभन (कत्ल) से धरती पर नदी के रूप में बह निकली राजा रंतिदेव की कीर्ति पर अवश्य झुकना."
सिर्फ साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए अब गाय का इस्तेमाल करते हैं
इनका कहना है
गाय हमारी माता है
हमको कुछ नहीं आता है
बैल हमारा बाप है
प्रेम से रहना पाप है
ये जर्मन और युरेशियन लोग आज अपनी माँ को तो पूछते नहीं, मानव को मानव नहीं समझते मगर गाय का मूत पीने को तैयार रहते हैं।
अब बात की जाए जनसंख्या आयुक्त के प्रपत्र की संख्या 10 की, जो गोमांस खाने से सम्बन्धित है। जनसंख्या के परिणामों से पता चलता है कि अछूत जातियों का मुख्य भोजन मरी गाय का मांस है। नीच से नीच हिन्दू भी गोमांस नहीं खाता। और दूसरी तरफ़ जितनी भी अछूत जातियां हैं, सब का सम्बन्ध किसी न किसी तरह से मरी हुई गाय से है, कुछ खाते हैं, कुछ चमड़ा उतारते हैं, और कुछ गाय के चमड़े से बनी चीज़ें बनाते हैं।
तो क्या गोमांस भक्षण का अस्पृश्यता से कुछ गहरा सम्बन्ध है? मेरा विचार से यह कहना तथ्यसंगत होगा कि वे छितरे लोग जो गोमांस खाते थे, अछूत बन गए।
वेदव्यास स्मृति का श्लोक कहता है; 'मोची, सैनिक, भील धोबी, पुष्कर, व्रात्य, मेड, चांडाल, दास, स्वपाक, कौलिक तथा दूसरे वे सभी जो गोमांस खाते हैं, अंत्यज कहलाते हैं।' वेदव्यास स्मृति के इस श्लोक के बाद तर्क वितर्क की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए।
पूछा जा सकता है कि ब्राह्मणों ने बौद्धों के प्रति जो घृणा का भाव फैलाया था वह तो सामान्य रूप से सभी बौद्धों के विरुद्ध था तो फिर केवल छितरे लोग ही अछूत क्यों बने? तो अब हम निष्कर्ष निकाल सकते है कि छितरे लोग बौद्ध होने के कारण घृणा का शिकार हुए और गोमांस भक्षण के कारण अछूत बन गए।
गोमांसाहार को अस्पृश्यता की उत्पत्ति का कारण मान लेने से कई तरह के प्रश्न खड़े हो जाते हैं। मैं इन प्रश्नों का उत्तर निम्न शीर्षकों में देना चाहूँगा –
1. क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?
2. हिन्दुओं ने गोमांस खाना क्यों छोड़ा?
3. ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने?
4. गोमांसाहार से छुआछूत की उत्पत्ति क्यों हुई? और
5. छुआछूत का चलन कब से हुआ?
अध्याय 11: क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?
प्रत्येक हिन्दू इस प्रश्न का उत्तर में कहेगा नहीं, कभी नहीं। मान्यता है कि वे सदैव गौ को पवित्र मानते रहे और गोह्त्या के विरोधी रहे।
उनके इस मत के पक्ष में क्या प्रमाण हैं कि वे गोवध के विरोधी थे? ऋग्वेद में दो प्रकार के प्रमाण है; एक जिनमें गो को अवध्य कहा गया है और दूसरा जिसमें गो को पवित्र कहा गया है। चूँकि धर्म के मामले में वेद अन्तिम प्रमाण हैं इसलिये कहा जा सकता है कि गोमांस खाना तो दूर आर्य गोहत्या भी नहीं कर सकते। और उसे रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की बहन, अमृत का केन्द्र और यहाँ तक कि देवी भी कहा गया है।
शतपथ ब्राह्मण (3.1-2.21) में कहा है; "..उसे गो या बैल का मांस नहीं खाना चाहिये, क्यों कि पृथ्वी पर जितनी चीज़ें हैं, गो और बैल उन सब का आधार है,..आओ हम दूसरों (पशु योनियों) की जो शक्ति है वह गो और बैल को ही दे दें.."। इसी प्रकार आपस्तम्ब धर्मसूत्र के श्लोक 1, 5, 17, 19 में भी गोमांसाहार पर एक प्रतिबंध लगाया है। हिन्दुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया, इस पक्ष में इतने ही साक्ष्य उपलब्ध हैं।
मगर यह निष्कर्ष इन साक्ष्यों के गलत अर्थ पर आधारित है। ऋग्वेद में अघन्य (अवध्य) उस गो के सन्दर्भ में आया है जो दूध देती है अतः नहीं मारी जानी चाहिये। फिर भी यह सत्य है कि वैदिक काल में गो आदरणीय थी, पवित्र थी और इसीलिये उसकी हत्या होती थी। श्री काणे अपने ग्रंथ धर्मशास्त्र विचार में लिखते हैं;
'ऐसा नहीं था कि वैदिक काल में गो पवित्र नहीं थी। उसकी पवित्रता के कारण ही वजसनेयी संहिता में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिये।'
ऋग्वेद में इन्द्र का कथन आता है (10.86.14), "वे पकाते हैं मेरे लिये पन्द्र्ह बैल, मैं खाता हूँ उनका वसा और वे भर देते हैं मेरा पेट खाने से" । ऋग्वेद में ही अग्नि के सन्दर्भ में आता है (10. 91. 14)कि "उन्हे घोड़ों, साँड़ों, बैलों, और बाँझ गायों, तथा भेड़ों की बलि दी जाती थी.."
तैत्तिरीय ब्राह्मण में जिन काम्येष्टि यज्ञों का वर्णन है उनमें न केवल गो और बैल को बलि देने की आज्ञा है किन्तु यह भी स्पष्ट किया गया है कि विष्णु को नदिया बैल चढ़ाया जाय, इन्द्र को बलि देने के लिये कृश बैल चुनें, और रुद्र के लाल गो आदि आदि।
आपस्तम्ब धर्मसूत्र के 14,15, और 17वें श्लोक में ध्यान देने योग्य है, "गाय और बैल पवित्र है इसलिये खाये जाने चाहिये"।
आर्यों में विशेष अतिथियों के स्वागत की एक खास प्रथा थी, जो सर्वश्रेष्ठ चीज़ परोसी जाती थी, उसे मधुपर्क कहते थे। भिन्न भिन्न ग्रंथ इस मधुपर्क की पाक सामग्री के बारे में भिन्न भिन्न राय रखते हैं। किन्तु माधव गृह सूत्र (1.9.22) के अनुसार, वेद की आज्ञा है कि मधुपर्क बिना मांस का नहीं होना चाहिये और यदि गाय को छोड़ दिया गया हो तो बकरे की बलि दें। बौधायन गृह सूत्र के अनुसार यदि गाय को छोड़ दिया गया हो तो बकरे, मेढ़ा, या किसी अन्य जंगली जानवर की बलि दें। और किसी मांस की बलि नहीं दे सकते तो पायस (खीर) बना लें।
तो अतिथि सम्मान के लिये गो हत्या उस समय इतनी सामान्य बात थी कि अतिथि का नाम ही गोघ्न पड़ गया। वैसे इस अनावश्यक हत्या से बचने के लिये आश्वालायन गृह सूत्र का सुझाव है कि अतिथि के आगमन पर गाय को छोड़ दिया जाय ( इसी लिये दूसरे सूत्रों में बार बार गाय के छोड़े जाने की बात है)। ताकि बिना आतिथ्य का नियम भंग किए गोहत्या से बचा जा सके।
प्राचीन आर्यों में जब कोई आदमी मरता था तो पशु की बलि दी जाती थी और उस पशु का अंग प्रत्यंग मृत मनुष्य के उसी अंग प्रत्यंग पर रखकर दाह कर्म किया जाता था। और यह पशु गो होता था। इस विधि का विस्तृत वर्णन आश्वालायन गृह सूत्र में है।
गो हत्या पर इन दो विपरीत प्रमाणों में से किस पक्ष को सत्य समझा जाय? असल में गलत दोनों नहीं हैं शतपथ ब्राह्मण की गोवध से निषेध की आज्ञा असल में अत्यधिक गोहत्या से विरत करने का अभियान है। और बावजूद इन निषेधाज्ञाओं के ये अभियान असफल हो जाते थे। शतपथ ब्राह्मण का पूर्व उल्लिखित उद्धरण (3.1-2.21) प्रसिद्ध ऋषि याज्ञवल्क्य को उपदेश स्वरूप आया है। और इस उपदेश के पूरा हो जाने पर याज्ञ्वल्क्य का जवाब सुनने योग्य है; "मगर मैं खा लेता हूँ अगर वह (मांस) मुलायम हो तो।"
वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों के बहुत बाद रचे गये बौद्ध सूत्रों में भी इसके उल्लेख हैं। कूट्दंत सूत्र में बुद्ध, ब्राह्मण कूटदंत को पशुहत्या न करने का उपदेश देते हुए वैदिक संस्कृति पर व्यंग्य करते हैं, " .. हे ब्राह्मण उस यज्ञ में न बैल मारे गये, न अजा, न कुक्कुट, न मांसल सूअर न अन्य प्राणी.." और जवाब में कूटदंत बुद्ध के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है और कहता है, ".. मैं स्वेच्छा से सात सौ साँड़, सात सौ तरुण बैल, सात सौ बछड़े, सात सौ बकरे, और सात सौ भेड़ों को मुक्त करता हूँ जीने के लिये.. "
अब इतने सारे साक्ष्यों के बाद भी क्या किसी को सन्देह है कि ब्राह्मण और अब्राह्मण सभी हिन्दू एक समय पर न केवल मांसाहारी थे बल्कि गोमांस भी खाते थे।
अध्याय 12: गैर ब्राह्मणों ने गोमांस खाना कब छोड़ा?
साम्प्रदायिक दृष्टि से हिन्दू या तो शूद्र होते हैं या वैष्णव, उसी तरह शाकाहारी होते हैं या मांसाहारी। मांसाहारी में भी दो वर्ग हैं, 1) जो मांस खाते हैं पर गोमांस नहीं खाते, और 2) जो गोमांस भी खाते हैं। तो इस तरह से तीन वर्ग हो गये;
1) शाकाहारी, यानी ब्राह्मण (हालाँकि कुछ ब्राह्मण भी मांसाहार करते हैं)
2)मांसाहारी किंतु गोमांस न खाने वाले यानी अब्राह्मण
3)गोमांस खाने वाले यानी अछूत
यह वर्गीकरण चातुर्वर्ण के अनुरूप नहीं है फिर भी तथ्यों के अनुरूप है। शाकाहारी होना समझ आता है, गोमांस खाने वाले की स्थिति भी समझ आती है, मगर अब्राह्मण की सिर्फ़ गोमांस से परहेज़ की स्थिति समझ नहीं आती। इस गुत्थी को सुलझाने के लिये पुराने समय के क़ानून को समझने की ज़रूरत होगी। तो ऐसा नियम या तो मनु के विधान में होगा या अशोक के।
अशोक का स्तम्भ लेख -5 कहता है, "..राज्याभिषेक के 26 वर्ष बाद मैंने इन प्राणियों का वध बंद करा दिया है, जैसे सुगा, मैना, अरुण, चकोर, हंस पानान्दीमुख, गोलाट, चमगादड़, कछुआ, रामानन्दी कछुआ, वेदवेयक, गंगापुपुतक, रानी चींटी, स्केट मछली, बिन काँटों की मछली, साही, गिलहरी, बारासिंगा, साँड़, बंदर, गैंडा, मृग, सलेटी कबूतर, और सब तरह के चौपाये जो न तो किसी उपयोग में आते हैं और न खाए जाते हैं.."
अशोक के निर्देशों पर टिप्पणी करते हुए श्री विंसेट स्मिथ कहते हैं कि "अशोक के निर्देशों में गोहत्या का निषेध नहीं है, ऐसा लगता है कि गोहत्या वैध बनी रही" मगर प्रोफ़ेसर राधाकुमुद मुखर्जी का कहना है कि "चूंकि अशोक ने सभी चौपायों की हत्या पर रोक लगाई तो गो हत्या पर स्वतः रोक मानी जाय"। उनके कहने का अर्थ यह है कि अशोक के समय गोमांस नहीं खाया जाता था इसलिये उसका अलग से उल्लेख करने की ज़रूरत न हुई।
मगर शायद सच यह है कि अशोक की गो में कोई विशेष दिलचस्पी होने की कोई वजह न थी। और इसे वह अपना कर्तव्य नहीं समझता था कि गो को हत्या से बचाये। अशोक प्राणी मात्र, मनुष्य या पशु, पर दया चाहता था। उसने यज्ञों के लिए पशु बलि का निषेध किया मगर उन पशुओं की हत्या से निषेध नहीं किया जो किसी काम में आते हैं या खाए जाते हैं। अशोक ने निरर्थक वध को अनुचित ठहराया।
अब मनु को देख लिया जाय। मनु ने पक्षियों, जलचरों, मत्स्यों, सर्पादि और चौपायों की एक लम्बी सूची दी है जो कुछ इस प्रकार समाप्त होती है, " पंचनखियों में सेह, साही, शल्यक, गोह, गैंडा, कछुआ, खरहा, तथा एक ऒर दाँत वाले पशुओं में ऊँट को छोड़कर बकरे आदि पशु भक्ष्य हैं, ऐसा कहा गया है.."
तो मनु ने भी गोहत्या के विरुद्ध कोई विधान नहीं बनाया। उन्होने तो विशेष अवसरों पर गोमांस खाना अनिवार्य ठहराया है।
तो फिर अब्राह्मण ने गोमांस खाना क्यों छोड़ दिया? मेरा विचार है कि अब्राह्मण ने सिर्फ़ ब्राह्मण की नकल में गोमांस खाना छोड़ दिया। यह नया विचार लग सकता है पर नामुमकिन नहीं है यह। फ़्रांसीसी लेखक गैब्रियल तार्दे लिखते हे कहते हैं कि "समाज में संस्कृति, निम्न वर्ग के द्वारा उच्च वर्ग का, अनुसरण करने से फैलती है"। यह नकल बहुत मजे से के मशीनी गति से एक प्राकृतिक नियम की तरह होता चलता है। उनका मानना है कि निम्न वर्ग हमेशा उच्च वर्ग की नकल करता है और ये इतनी आम बात समझी जाती है कि कभी कोई इस पर सवाल भी नहीं करता।
तो कहा जा सकता है कि अब्राह्मणो ने गोमांस खाना ब्राह्मणों की नकल के फलस्वरूप छोड़ा। मगर बड़ा सवाल है कि ब्राहमणों ने गोमांस खाना क्यों छोड़ा?
अध्याय 13: ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने?
एक समय था जब ब्राह्मण सब से अधिक गोमांसाहारी थे। कर्मकाण्ड के उस युग में शायद ही कोई दिन ऐसा होता हो जब किसी यज्ञ के निमित्त गो वध न होता हो, और जिसमें कोई अब्राह्मण किसी ब्राह्मण को न बुलाता हो। ब्राह्मण के लिए हर दिन गोमांसाहार का दिन था। अपनी गोमांसा लालसा को छिपाने के लिए उसे गूढ़ बनाने का प्रयतन किया जाता था। इस रहस्यमय ठाठ बाट की कुछ जानकारी ऐतरेय ब्राह्मण में देखी जा सकती है। इस प्रकार के यज्ञ में भाग लेने वाले पुरोहितों की संख्या कुल सत्रह होती, और वे स्वाभाविक तौर पर मृत पशु की पूरी की पूरी लाश अपने लिए ही ले लेना चाहते। तो यजमान के घर के सभी सदस्यों से अपेक्षित होता कि वे यज्ञ की एक विधि के अन्तर्गत पशु के मांस पर से अपना अधिकार छोड़ दें।
ऐतरेय ब्राह्मण में जो कुछ कहा गया है उस से दो बातें असंदिग्ध तौर पर स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि बलि के पशु के सारा मांस ब्राह्मण ही ले लेते थे। और दूसरी यह कि पशुओं का वध करने के लिये ब्राह्मण स्वयं कसाई का काम करते थे।
तब फिर इस प्रकार के कसाई, गोमांसाहारियों ने पैंतरा क्यों बदला?
पहले बताया जा चुका है कि अशोक ने कभी गोहत्या के खिलाफ़ कोई का़नून नहीं बनाया। और यदि बनाया भी होता तो ब्राह्मण समुदाय एक बौद्ध सम्राट के का़नून को क्यों मानते? तो क्या मनु ने गोहत्या का निषेध किया था? तो क्या मनु ने कोई का़नून बनाया? मनुस्मृति के अध्याय 5 में खान पान के विषय में श्लोक मिलते हैं;
"बिना जीव को कष्ट पहुँचाये मांस प्राप्त नहीं किया जा सकता और प्राणियों के वध करने से स्वर्ग नहीं मिलता तो मनुष्य को चाहिये कि मांसाहार छोड़ दे।" (5.48)
तो क्या इसी को मांसाहार के विरुद्ध निषेधाज्ञा माना जाय? मुझे ऐसा मानने में परेशानी है और मैं समझता हूँ कि ये श्लोक ब्राह्मणों के शाकाहारी बन जाने के बाद में जोड़े गये अंश हैं। क्योंकि मनुस्मृति के उसी अध्याय 5 के इस श्लोक के पहले करीब बीस पच्चीस श्लोक में विवरण है कि मांसाहार कैसे किया जाय, उदाहरण स्वरूप;
प्रजापति ने इस जगत को इस प्राण के अन्न रूप में बनाया है, सभी चराचर (जड़ व जीव) इस प्राण का भोजन हैं। (5.28)
मांस खाने, मद्यपान तथा मैथुन में कोई दोष नहीं। यह प्राणियों का स्वभाव है पर उस से परहेज़ में महाफल है।(5.56)
ब्राह्मणों द्वारा मंत्रों से पवित्र किया हुआ मांस खाना चाहिये और प्राणों का संकत होने पर अवश्य खाना चाहिये। (5.27)
ब्रह्मा ने पशुओं को यज्ञो में बलि के लिये रचा है इसलिये यज्ञो में पशु वध को वध नहीं कहा जाता। (5.39)
एक बार तय हो जाने पर जो मनुष्य (श्राद्ध आदि अवसर पर) मांसाहार नहीं करता वह इक्कीस जन्मो तक पशु योनि में जाता है। (5.35)
स्पष्ट है कि मनु न मांसाहार का निषेध नहीं किया और गोहत्या का भी कहीं निषेध नहीं किया।मनु के विधान में पाप कर्म दो प्रकार के हैं;1) महापातक: ब्रह्म हत्या, मद्यपान, चोरी, गुरुपत्नीगमन ये चार अपराध महापातक हैं।और 2) उपपातक: परस्त्रीगमन, स्वयं को बेचना, गुरु, माँ, बाप की उपेक्षा, पवित्र अग्नि का त्याग, पुत्र के पोषण से इंकार, दूषित मनुष्य से यज्ञ कराना और गोवध।
स्पष्ट है कि मनु की दृष्टि में गोवध मामूली अपराध था। और तभी निन्दनीय था जब गोवध बिना उचित और पर्याप्त कारण के हो। याज्ञवल्क्य ने भी ऐसा ही कहा है।
तो फिर आज के जैसी स्थिति कैसे पैदा हुई? कुछ लोग कहेंगे कि ये गो पूजा उसी अद्वैत दर्शन का परिणाम है जिसकी शिक्षा है कि समस्त विश्व में ब्रह्म व्याप्त है। मगर यह संतोषजनक नहीं है जो वेदांतसूत्र ब्रह्म के एकत्व की बात करते हैं वे यज्ञ के लिये पशु हत्या को वर्जित नहीं करते (2.1.28)। और अगर ऐसा है भी तो यह आचरण सिर्फ़ गो तक सीमित क्यों सभी पशुओं पर क्यों नहीं लागू होता?
मेरे विचार से ये ब्राह्मणों के चातुर्य का एक अंग है कि वे गोमांसाहारी न रहकर गो पूजक बन गए। इस रहस्य का मूल बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष में छिपा है। उन के बीच तू डाल डाल मैं पात पात की होड़ भारतीय इतिहास की निर्णायक घटना है। दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने इसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया है। वे आम तौर पर इस तथ्य से अपरिचित होते हैं कि लगभग 400 साल तक बौद्ध और ब्राह्मण एक दूसरे से बाजी मार ले जाने के लिए संघर्ष करते रहे।
एक समय था जब अधिकांश भारतवासी बौद्ध थे। और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणवाद पर ऐसे आक्रमण किए जो पहले किसी ने नहीं किए। बौद्ध धर्म के विस्तार के कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व न दरबार में रहा न जनता में। वे इस पराजय से पीड़ित थे और अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने के प्रयत्नशील थे।
इसका एक ही उपाय था कि वे बौद्धों के जीवनदर्शन को अपनायें और उनसे भी चार कदम आगे बढ़ जायें। बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद बौद्धों ने बुद्ध की मूर्तियां और स्तूप बनाने शुरु किये। ब्राह्मणों ने उनका अनुकरण किया। उन्होने शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि की मूर्तियां स्थापित करके उनके मंदिर बनाए। मकसद इतना ही था कि बुद्ध मूर्ति पूजा से प्रभावित जनता को अपनी ओर आकर्षित करें। जिन मंदिरों और मूर्तियों का हिन्दू धर्म में कोई स्थान न था उनके लिए स्थान बना।
गोवध के बारे में बौद्धों की आपत्ति का जनता पर प्रभाव पड़ने के दो कारण थे कि एक तो वे लोग कृषि प्रधान थे और दूसरे गो बहुत उपयोगी थे। और उसी वजह से ब्राह्मण गोघातक समझे जाकर घृणा के पात्र बन गए थे।
गोमांसाहार छोड़ कर ब्राह्मणों का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं से उनकी श्रेष्ठता छीन लेना ही था। और बिना शाकाहारी बने वह पुनः उस स्थान को प्राप्त नहीं पर सकता था जो बौद्धों के आने के बाद उसके पैर के नीचे से खिसक गया था। इसीलिए ब्राह्मण बौद्ध भिक्षुओं से भी एक कदम आगे जा कर शाकाहारी बन गए। यह एक कुटिल चाल थी क्योंकि बौद्ध शाकाहारी नहीं थे। हो सकता है कि ये जानकर कुछ लोग आश्चर्य करें पर यह सच है। बौद्ध त्रिकोटी परिशुद्ध मांस खा सकते थे।यानी ऐसे पशु को जिसे उनके लिए मारा गया ऐसा देखा न हो, सुना न हो और न ही कोई अन्य संदेह हो। इसके अलावा वे दो अन्य प्रकार का मांस और खा सकते थे- ऐसे पशु का जिसकी स्वाभाविक मृत्यु हुई हो या जिसे किसी अन्य वन्य पशु पक्षी ने मार दिया हो।
तो इस प्रकार के शुद्ध किए हुए मांस खाने वाले बौद्धों से मुकाबले के लिए मांसाहारी ब्राह्मणों को मांस छोड़ने की क्या आवश्यक्ता थी। थी, क्योंकि वे जनता की दृष्टि में बौद्धों के साथ एक समान तल पर खड़े नहीं होना चाहते थे। यह अति को प्रचण्ड से पराजित करने की नीति है। यह वह युद्ध नीति है जिसका उपयोग वामपंथियों को हटाने के लिए सभी दक्षिणपंथी करते हैं।
एक और प्रमाण है कि उन्होने ऐसा बौद्धों को परास्त करने के लिए ही किया। यह वह स्थिति बनी जब गोवध महापातक बन गया। भण्डारकर जी लिखते हैं कि, "हमारे पास एक ताम्र पत्र है जो कि गुप्त राजवंश के स्कंदगुप्त के राज्यकाल का है। यह एक दान पात्र है जिसके अंतिम श्लोक में लिखा है : जो भी इस प्रदत्तदान में हस्तक्षेप करेगा वह गो हत्या, गुरुहत्या, या ब्राह्मण हत्या जैसे पाप का भागी होगा।" हमने ऊपर देखा है कि मनु ने गोवध को उपपातक माना है। मगर स्कन्द गुप्त के काल (412 ईसवी) तक आते आते महापातक बन गया।
हमारा विश्लेषण है कि बौद्ध भिक्षुओ पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ब्राह्मणों के लिए यह अनिवार्य हो गया था कि वे वैदिक धर्म के एक अंश से अपना पीछा छुड़ा लें। यह एक साधन था जिसे ब्राह्मणों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पाने के लिए उपयोग किया।
गोमांस भक्षण से छितरे व्यक्ति अछूत कैसे बने?
जब ब्राह्मणों तथा अब्राह्मणों ने गोमांस त्याग दिया तो एक नई स्थिति पैदा हो गई। जिसमें सिर्फ़ छितरे लोग ही गोमांस भक्षण कर रहे थे। यदि गोमांसाहार मात्र व्यक्तिगत अरुचि अरुचि का प्रश्न होता तो गोमांस खाने और न खाने वालों के बीच कोई दीवार न खडी होती मगर मांसाहार एक लौकिक बात न रहकर धर्म का प्रश्न बन गया था।
ब्राह्मणों ने जीवित और मृत गो में भेद करने की किसी प्रकार की आवश्यक्ता नहीं समझी। गो पवित्र थी चाहे मृत या जीवित। यदि कोई गो को पवित्र न माने और तो वह पाप का भागी होगा। तो छितरे लोग जिन्होने गोमांसाहार जारी रखा, पाप के भागी हुए और अछूत बन गए।
इस मत पर कुछ आपत्तियां हो सकती हैं। पहली तो यह कि इस बात का क्या प्रमाण है कि छितरे लोग गोमांस खाते थे?
इसका जवाब यह है कि जिस समय बसे हुए लोग और छितरे लोग दोनों गोमांसाहारी थे तो तो एक परिपाटी चल निकली जिसके तहत बसे हुए लोग गो का ताज़ा मांस खाते और छितरे लोग मृत गाय का। मरी हुई गो पर छितरे हुए लोगों का अधिकार होता था। महाराष्ट्र के महारों से सम्बन्धित इस साक्ष्य की चर्चा पहले भी की जा चुकी है। महाराष्ट्र के गाँवों में हिन्दू लोगों को एक समझौते के तहत अपने मृत पशुओं महारों को सौंपना पड़ता है। कहते हैं कि बीदर के मुस्लिम राजा ने ऐसे 52 अधिकार उन्हे दे दिये। ऐसी कोई और वजह नहीं लगती कि बीदर के राजा अचानक ये अधिकार महारों को दे दे सिवाय इसके कि ये अधिकार उनके पास पहले से चले आ रहे थे जिन्हे उन्हे दुबारा पक्का कर दिया गया।
बसे हुए लोग धनी थे। उनकी जीविका के लिए खेती और पशुपालन थे। मगर छितरे हुए लोग निर्धन थे और उनकी जीविका के साधन भी न थे। इस तरह का प्रबन्ध स्वाभाविक लगता है जिसमें छितरे हुए लोगों ने बसे हुए लोगों की पहरेदारी के बदले मृत जानवरों पर अधिकार की मज़दूरी स्वीकार की। और ऐसा सम्पूर्ण भारत में हुआ होगा।
दूसरी आपत्ति यह कि जब ब्राह्मणों और अब्राह्मणों ने गोमांस छोड़ा तो छितरे लोगों ने भी क्यों न छोड़ दिया?
यह सवाल प्रासंगिक है मगर गुप्त काल में गोवध के खिलाफ़ जो कानून आया वह छितरे लोगों पर इस लिए लागू नहीं हो सकता था क्योंकि वे मृत गो का मांस खाते थे। और उनका आचरण गोवध निषेध के विरुद्ध नहीं पड़ता था। और अहिंसा के विरुद्ध भी नहीं। तो छितरे लोगों का यह व्यवहार न नियम के विरुद्ध हुआ न सिद्धान्त के।
और तीसरी, यह कि इन छितरे लोगों ने ब्राह्मणों का अनुकरण क्यों न किया? उन्हे गोमांस खाने से रोका भी तो जा सकता था, अगर ऐसा हुआ होता तो अस्पृश्यता का जन्म ही न होता?
इस प्रश्न के जवाब के दो पहलू हैं। पहला तो यह कि नकल करना उनके लिए अत्यन्त मँहगा सौदा था। मृत गो का मांस उनका जीवनाधार था। इसके बिना वे भूखे मर जाते। दूसरा यह कि मृत गायों का ढोना जो पहले एक अधिकार था बाद में एक कर्तव्य में बदल गया(सुधार आन्दोलन के बाद महार मृत गो उठाने से मना करते हैं पर हिन्दू उन्हे मजबूर करते हैं)। तो जब मृत गो को उठाने से कोई मुक्ति नहीं थी इसलिये उस मृत पशु के जानवर को खाने के लिए इस्तेमाल करने से उन्हे ऐतराज़ न था जैसा वे पहले करते ही थे।
महाभारत में रंतिदेव नामक एक राजा का वर्णन मिलता है जो गोमांस परोसने के कारण यशस्वी बना. महाभारत, वन पर्व (अ. 208 अथवा अ.199) में आता है
राज्ञो महानसे पूर्व रन्तिदेवस्य वै द्विज
द्वे सहस्रे तु वध्येते पशूनामन्वहं तदा
अहन्यहनि वध्येते द्वे सहस्रे गवां तथा
समांसं ददतो ह्रान्नं रन्तिदेवस्य नित्यशः
अतुला कीर्तिरभवन्नृप्स्य द्विजसत्तम
-महाभारत, वनपर्व 208 199/8-10
अर्थात राजा रंतिदेव की रसोई के लिए दो हजार पशु काटे जाते थे. प्रतिदिन दो हजार गौएं काटी जाती थीं मांस सहित अन्न का दान करने के कारण राजा रंतिदेव की अतुलनीय कीर्ति हुई. इस वर्णन को पढ कर कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि गोमांस दान करने से यदि राजा रंतिदेव की कीर्ति फैली तो इस का अर्थ है कि तब गोवध सराहनीय कार्य था, न कि आज की तरह निंदनीय
महाभारत:
गौगव्येन दत्तं श्राद्धे तु संवत्सरमिहोच्यते
–अनुशासन पर्व, 88/5
अर्थात गौ के मांस से श्राद्ध करने पर पितरों की एक साल के लिए तृप्ति होती है
पंडित पांडुरंग वामन काणे ने लिखा है:
'ऐसा नहीं था कि वैदिक समय में गौ पवित्र नहीं थी, उसकी 'पवित्रता के ही कारण वाजसनेयी संहिता (अर्थात यजूर्वेद) में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिए।' –धर्मशास्त्र विचार, मराठी, पृ 180)
मनुस्मृति:
उष्ट्रवर्जिता एकतो दतो गोव्यजमृगा भक्ष्याः
–मनुस्मृति 5/18 मेधातिथि भाष्य
ऊँट को छोडकर एक ओर दांवालों में गाय, भेड, बकरी और मृग भक्ष्य अर्थात खाने योग्य है
रंतिदेव का उल्लेख महाभारत में अन्यत्र भी आता है.
शांति पर्व, अध्याय 29, श्लोक 123 में आता है कि राजा रंतिदेव ने गौओं की जा खालें उतारीं, उन से रक्त चूचू कर एक महानदी बह निकली थी. वह नदी चर्मण्वती (चंचल) कहलाई.
महानदी चर्मराशेरूत्क्लेदात् संसृजे यतः
ततश्चर्मण्वतीत्येवं विख्याता सा महानदी
कुछ लो इस सीधे सादे श्लोक का अर्थ बदलने से भी बाज नहीं आते. वे इस का अर्थ यह कहते हैं कि चर्मण्वती नदी जीवित गौओं के चमडे पर दान के समय छिड़के गए पानी की बूंदों से बह निकली.
इस कपोलकप्ति अर्थ को शाद कोई स्वीकार कर ही लेता यदि कालिदास का 'मेघदूत' नामक प्रसिद्ध खंडकाव्य पास न होता. 'मेघदूत' में कालिदास ने एक जग लिखा है
व्यालंबेथाः सुरभितनयालम्भजां मानयिष्यन्
स्रोतोमूर्त्या भुवि परिणतां रंतिदेवस्य कीर्तिम
यह पद्य पूर्वमेघ में आता है. विभिन्न संस्करणों में इस की संख्या 45 या 48 या 49 है.
इस का अर्थ हैः "हे मेघ, तुम गौओं के आलंभन (कत्ल) से धरती पर नदी के रूप में बह निकली राजा रंतिदेव की कीर्ति पर अवश्य झुकना."
सिर्फ साम्प्रदायिकता फैलाने के लिए अब गाय का इस्तेमाल करते हैं
इनका कहना है
गाय हमारी माता है
हमको कुछ नहीं आता है
बैल हमारा बाप है
प्रेम से रहना पाप है
ये जर्मन और युरेशियन लोग आज अपनी माँ को तो पूछते नहीं, मानव को मानव नहीं समझते मगर गाय का मूत पीने को तैयार रहते हैं।
(सौजन्य से विनीता रागा)
अछूत कौन थे?, डॉ. बाबासाहेब अंबेडकर
अध्याय 10 गोमांस भक्षण – छुआछूत का मूलाधारअब बात की जाए जनसंख्या आयुक्त के प्रपत्र की संख्या 10 की, जो गोमांस खाने से सम्बन्धित है। जनसंख्या के परिणामों से पता चलता है कि अछूत जातियों का मुख्य भोजन मरी गाय का मांस है। नीच से नीच हिन्दू भी गोमांस नहीं खाता। और दूसरी तरफ़ जितनी भी अछूत जातियां हैं, सब का सम्बन्ध किसी न किसी तरह से मरी हुई गाय से है, कुछ खाते हैं, कुछ चमड़ा उतारते हैं, और कुछ गाय के चमड़े से बनी चीज़ें बनाते हैं।
तो क्या गोमांस भक्षण का अस्पृश्यता से कुछ गहरा सम्बन्ध है? मेरा विचार से यह कहना तथ्यसंगत होगा कि वे छितरे लोग जो गोमांस खाते थे, अछूत बन गए।
वेदव्यास स्मृति का श्लोक कहता है; 'मोची, सैनिक, भील धोबी, पुष्कर, व्रात्य, मेड, चांडाल, दास, स्वपाक, कौलिक तथा दूसरे वे सभी जो गोमांस खाते हैं, अंत्यज कहलाते हैं।' वेदव्यास स्मृति के इस श्लोक के बाद तर्क वितर्क की कोई गुंजाइश नहीं रहनी चाहिए।
पूछा जा सकता है कि ब्राह्मणों ने बौद्धों के प्रति जो घृणा का भाव फैलाया था वह तो सामान्य रूप से सभी बौद्धों के विरुद्ध था तो फिर केवल छितरे लोग ही अछूत क्यों बने? तो अब हम निष्कर्ष निकाल सकते है कि छितरे लोग बौद्ध होने के कारण घृणा का शिकार हुए और गोमांस भक्षण के कारण अछूत बन गए।
गोमांसाहार को अस्पृश्यता की उत्पत्ति का कारण मान लेने से कई तरह के प्रश्न खड़े हो जाते हैं। मैं इन प्रश्नों का उत्तर निम्न शीर्षकों में देना चाहूँगा –
1. क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?
2. हिन्दुओं ने गोमांस खाना क्यों छोड़ा?
3. ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने?
4. गोमांसाहार से छुआछूत की उत्पत्ति क्यों हुई? और
5. छुआछूत का चलन कब से हुआ?
अध्याय 11: क्या हिन्दू कभी गोमांस नहीं खाते थे?
प्रत्येक हिन्दू इस प्रश्न का उत्तर में कहेगा नहीं, कभी नहीं। मान्यता है कि वे सदैव गौ को पवित्र मानते रहे और गोह्त्या के विरोधी रहे।
उनके इस मत के पक्ष में क्या प्रमाण हैं कि वे गोवध के विरोधी थे? ऋग्वेद में दो प्रकार के प्रमाण है; एक जिनमें गो को अवध्य कहा गया है और दूसरा जिसमें गो को पवित्र कहा गया है। चूँकि धर्म के मामले में वेद अन्तिम प्रमाण हैं इसलिये कहा जा सकता है कि गोमांस खाना तो दूर आर्य गोहत्या भी नहीं कर सकते। और उसे रुद्रों की माता, वसुओं की पुत्री, आदित्यों की बहन, अमृत का केन्द्र और यहाँ तक कि देवी भी कहा गया है।
शतपथ ब्राह्मण (3.1-2.21) में कहा है; "..उसे गो या बैल का मांस नहीं खाना चाहिये, क्यों कि पृथ्वी पर जितनी चीज़ें हैं, गो और बैल उन सब का आधार है,..आओ हम दूसरों (पशु योनियों) की जो शक्ति है वह गो और बैल को ही दे दें.."। इसी प्रकार आपस्तम्ब धर्मसूत्र के श्लोक 1, 5, 17, 19 में भी गोमांसाहार पर एक प्रतिबंध लगाया है। हिन्दुओं ने कभी गोमांस नहीं खाया, इस पक्ष में इतने ही साक्ष्य उपलब्ध हैं।
मगर यह निष्कर्ष इन साक्ष्यों के गलत अर्थ पर आधारित है। ऋग्वेद में अघन्य (अवध्य) उस गो के सन्दर्भ में आया है जो दूध देती है अतः नहीं मारी जानी चाहिये। फिर भी यह सत्य है कि वैदिक काल में गो आदरणीय थी, पवित्र थी और इसीलिये उसकी हत्या होती थी। श्री काणे अपने ग्रंथ धर्मशास्त्र विचार में लिखते हैं;
'ऐसा नहीं था कि वैदिक काल में गो पवित्र नहीं थी। उसकी पवित्रता के कारण ही वजसनेयी संहिता में यह व्यवस्था दी गई है कि गोमांस खाना चाहिये।'
ऋग्वेद में इन्द्र का कथन आता है (10.86.14), "वे पकाते हैं मेरे लिये पन्द्र्ह बैल, मैं खाता हूँ उनका वसा और वे भर देते हैं मेरा पेट खाने से" । ऋग्वेद में ही अग्नि के सन्दर्भ में आता है (10. 91. 14)कि "उन्हे घोड़ों, साँड़ों, बैलों, और बाँझ गायों, तथा भेड़ों की बलि दी जाती थी.."
तैत्तिरीय ब्राह्मण में जिन काम्येष्टि यज्ञों का वर्णन है उनमें न केवल गो और बैल को बलि देने की आज्ञा है किन्तु यह भी स्पष्ट किया गया है कि विष्णु को नदिया बैल चढ़ाया जाय, इन्द्र को बलि देने के लिये कृश बैल चुनें, और रुद्र के लाल गो आदि आदि।
आपस्तम्ब धर्मसूत्र के 14,15, और 17वें श्लोक में ध्यान देने योग्य है, "गाय और बैल पवित्र है इसलिये खाये जाने चाहिये"।
आर्यों में विशेष अतिथियों के स्वागत की एक खास प्रथा थी, जो सर्वश्रेष्ठ चीज़ परोसी जाती थी, उसे मधुपर्क कहते थे। भिन्न भिन्न ग्रंथ इस मधुपर्क की पाक सामग्री के बारे में भिन्न भिन्न राय रखते हैं। किन्तु माधव गृह सूत्र (1.9.22) के अनुसार, वेद की आज्ञा है कि मधुपर्क बिना मांस का नहीं होना चाहिये और यदि गाय को छोड़ दिया गया हो तो बकरे की बलि दें। बौधायन गृह सूत्र के अनुसार यदि गाय को छोड़ दिया गया हो तो बकरे, मेढ़ा, या किसी अन्य जंगली जानवर की बलि दें। और किसी मांस की बलि नहीं दे सकते तो पायस (खीर) बना लें।
तो अतिथि सम्मान के लिये गो हत्या उस समय इतनी सामान्य बात थी कि अतिथि का नाम ही गोघ्न पड़ गया। वैसे इस अनावश्यक हत्या से बचने के लिये आश्वालायन गृह सूत्र का सुझाव है कि अतिथि के आगमन पर गाय को छोड़ दिया जाय ( इसी लिये दूसरे सूत्रों में बार बार गाय के छोड़े जाने की बात है)। ताकि बिना आतिथ्य का नियम भंग किए गोहत्या से बचा जा सके।
प्राचीन आर्यों में जब कोई आदमी मरता था तो पशु की बलि दी जाती थी और उस पशु का अंग प्रत्यंग मृत मनुष्य के उसी अंग प्रत्यंग पर रखकर दाह कर्म किया जाता था। और यह पशु गो होता था। इस विधि का विस्तृत वर्णन आश्वालायन गृह सूत्र में है।
गो हत्या पर इन दो विपरीत प्रमाणों में से किस पक्ष को सत्य समझा जाय? असल में गलत दोनों नहीं हैं शतपथ ब्राह्मण की गोवध से निषेध की आज्ञा असल में अत्यधिक गोहत्या से विरत करने का अभियान है। और बावजूद इन निषेधाज्ञाओं के ये अभियान असफल हो जाते थे। शतपथ ब्राह्मण का पूर्व उल्लिखित उद्धरण (3.1-2.21) प्रसिद्ध ऋषि याज्ञवल्क्य को उपदेश स्वरूप आया है। और इस उपदेश के पूरा हो जाने पर याज्ञ्वल्क्य का जवाब सुनने योग्य है; "मगर मैं खा लेता हूँ अगर वह (मांस) मुलायम हो तो।"
वेदों और ब्राह्मण ग्रंथों के बहुत बाद रचे गये बौद्ध सूत्रों में भी इसके उल्लेख हैं। कूट्दंत सूत्र में बुद्ध, ब्राह्मण कूटदंत को पशुहत्या न करने का उपदेश देते हुए वैदिक संस्कृति पर व्यंग्य करते हैं, " .. हे ब्राह्मण उस यज्ञ में न बैल मारे गये, न अजा, न कुक्कुट, न मांसल सूअर न अन्य प्राणी.." और जवाब में कूटदंत बुद्ध के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करता है और कहता है, ".. मैं स्वेच्छा से सात सौ साँड़, सात सौ तरुण बैल, सात सौ बछड़े, सात सौ बकरे, और सात सौ भेड़ों को मुक्त करता हूँ जीने के लिये.. "
अब इतने सारे साक्ष्यों के बाद भी क्या किसी को सन्देह है कि ब्राह्मण और अब्राह्मण सभी हिन्दू एक समय पर न केवल मांसाहारी थे बल्कि गोमांस भी खाते थे।
अध्याय 12: गैर ब्राह्मणों ने गोमांस खाना कब छोड़ा?
साम्प्रदायिक दृष्टि से हिन्दू या तो शूद्र होते हैं या वैष्णव, उसी तरह शाकाहारी होते हैं या मांसाहारी। मांसाहारी में भी दो वर्ग हैं, 1) जो मांस खाते हैं पर गोमांस नहीं खाते, और 2) जो गोमांस भी खाते हैं। तो इस तरह से तीन वर्ग हो गये;
1) शाकाहारी, यानी ब्राह्मण (हालाँकि कुछ ब्राह्मण भी मांसाहार करते हैं)
2)मांसाहारी किंतु गोमांस न खाने वाले यानी अब्राह्मण
3)गोमांस खाने वाले यानी अछूत
यह वर्गीकरण चातुर्वर्ण के अनुरूप नहीं है फिर भी तथ्यों के अनुरूप है। शाकाहारी होना समझ आता है, गोमांस खाने वाले की स्थिति भी समझ आती है, मगर अब्राह्मण की सिर्फ़ गोमांस से परहेज़ की स्थिति समझ नहीं आती। इस गुत्थी को सुलझाने के लिये पुराने समय के क़ानून को समझने की ज़रूरत होगी। तो ऐसा नियम या तो मनु के विधान में होगा या अशोक के।
अशोक का स्तम्भ लेख -5 कहता है, "..राज्याभिषेक के 26 वर्ष बाद मैंने इन प्राणियों का वध बंद करा दिया है, जैसे सुगा, मैना, अरुण, चकोर, हंस पानान्दीमुख, गोलाट, चमगादड़, कछुआ, रामानन्दी कछुआ, वेदवेयक, गंगापुपुतक, रानी चींटी, स्केट मछली, बिन काँटों की मछली, साही, गिलहरी, बारासिंगा, साँड़, बंदर, गैंडा, मृग, सलेटी कबूतर, और सब तरह के चौपाये जो न तो किसी उपयोग में आते हैं और न खाए जाते हैं.."
अशोक के निर्देशों पर टिप्पणी करते हुए श्री विंसेट स्मिथ कहते हैं कि "अशोक के निर्देशों में गोहत्या का निषेध नहीं है, ऐसा लगता है कि गोहत्या वैध बनी रही" मगर प्रोफ़ेसर राधाकुमुद मुखर्जी का कहना है कि "चूंकि अशोक ने सभी चौपायों की हत्या पर रोक लगाई तो गो हत्या पर स्वतः रोक मानी जाय"। उनके कहने का अर्थ यह है कि अशोक के समय गोमांस नहीं खाया जाता था इसलिये उसका अलग से उल्लेख करने की ज़रूरत न हुई।
मगर शायद सच यह है कि अशोक की गो में कोई विशेष दिलचस्पी होने की कोई वजह न थी। और इसे वह अपना कर्तव्य नहीं समझता था कि गो को हत्या से बचाये। अशोक प्राणी मात्र, मनुष्य या पशु, पर दया चाहता था। उसने यज्ञों के लिए पशु बलि का निषेध किया मगर उन पशुओं की हत्या से निषेध नहीं किया जो किसी काम में आते हैं या खाए जाते हैं। अशोक ने निरर्थक वध को अनुचित ठहराया।
अब मनु को देख लिया जाय। मनु ने पक्षियों, जलचरों, मत्स्यों, सर्पादि और चौपायों की एक लम्बी सूची दी है जो कुछ इस प्रकार समाप्त होती है, " पंचनखियों में सेह, साही, शल्यक, गोह, गैंडा, कछुआ, खरहा, तथा एक ऒर दाँत वाले पशुओं में ऊँट को छोड़कर बकरे आदि पशु भक्ष्य हैं, ऐसा कहा गया है.."
तो मनु ने भी गोहत्या के विरुद्ध कोई विधान नहीं बनाया। उन्होने तो विशेष अवसरों पर गोमांस खाना अनिवार्य ठहराया है।
तो फिर अब्राह्मण ने गोमांस खाना क्यों छोड़ दिया? मेरा विचार है कि अब्राह्मण ने सिर्फ़ ब्राह्मण की नकल में गोमांस खाना छोड़ दिया। यह नया विचार लग सकता है पर नामुमकिन नहीं है यह। फ़्रांसीसी लेखक गैब्रियल तार्दे लिखते हे कहते हैं कि "समाज में संस्कृति, निम्न वर्ग के द्वारा उच्च वर्ग का, अनुसरण करने से फैलती है"। यह नकल बहुत मजे से के मशीनी गति से एक प्राकृतिक नियम की तरह होता चलता है। उनका मानना है कि निम्न वर्ग हमेशा उच्च वर्ग की नकल करता है और ये इतनी आम बात समझी जाती है कि कभी कोई इस पर सवाल भी नहीं करता।
तो कहा जा सकता है कि अब्राह्मणो ने गोमांस खाना ब्राह्मणों की नकल के फलस्वरूप छोड़ा। मगर बड़ा सवाल है कि ब्राहमणों ने गोमांस खाना क्यों छोड़ा?
अध्याय 13: ब्राह्मण शाकाहारी क्यों बने?
एक समय था जब ब्राह्मण सब से अधिक गोमांसाहारी थे। कर्मकाण्ड के उस युग में शायद ही कोई दिन ऐसा होता हो जब किसी यज्ञ के निमित्त गो वध न होता हो, और जिसमें कोई अब्राह्मण किसी ब्राह्मण को न बुलाता हो। ब्राह्मण के लिए हर दिन गोमांसाहार का दिन था। अपनी गोमांसा लालसा को छिपाने के लिए उसे गूढ़ बनाने का प्रयतन किया जाता था। इस रहस्यमय ठाठ बाट की कुछ जानकारी ऐतरेय ब्राह्मण में देखी जा सकती है। इस प्रकार के यज्ञ में भाग लेने वाले पुरोहितों की संख्या कुल सत्रह होती, और वे स्वाभाविक तौर पर मृत पशु की पूरी की पूरी लाश अपने लिए ही ले लेना चाहते। तो यजमान के घर के सभी सदस्यों से अपेक्षित होता कि वे यज्ञ की एक विधि के अन्तर्गत पशु के मांस पर से अपना अधिकार छोड़ दें।
ऐतरेय ब्राह्मण में जो कुछ कहा गया है उस से दो बातें असंदिग्ध तौर पर स्पष्ट होती हैं। एक तो यह कि बलि के पशु के सारा मांस ब्राह्मण ही ले लेते थे। और दूसरी यह कि पशुओं का वध करने के लिये ब्राह्मण स्वयं कसाई का काम करते थे।
तब फिर इस प्रकार के कसाई, गोमांसाहारियों ने पैंतरा क्यों बदला?
पहले बताया जा चुका है कि अशोक ने कभी गोहत्या के खिलाफ़ कोई का़नून नहीं बनाया। और यदि बनाया भी होता तो ब्राह्मण समुदाय एक बौद्ध सम्राट के का़नून को क्यों मानते? तो क्या मनु ने गोहत्या का निषेध किया था? तो क्या मनु ने कोई का़नून बनाया? मनुस्मृति के अध्याय 5 में खान पान के विषय में श्लोक मिलते हैं;
"बिना जीव को कष्ट पहुँचाये मांस प्राप्त नहीं किया जा सकता और प्राणियों के वध करने से स्वर्ग नहीं मिलता तो मनुष्य को चाहिये कि मांसाहार छोड़ दे।" (5.48)
तो क्या इसी को मांसाहार के विरुद्ध निषेधाज्ञा माना जाय? मुझे ऐसा मानने में परेशानी है और मैं समझता हूँ कि ये श्लोक ब्राह्मणों के शाकाहारी बन जाने के बाद में जोड़े गये अंश हैं। क्योंकि मनुस्मृति के उसी अध्याय 5 के इस श्लोक के पहले करीब बीस पच्चीस श्लोक में विवरण है कि मांसाहार कैसे किया जाय, उदाहरण स्वरूप;
प्रजापति ने इस जगत को इस प्राण के अन्न रूप में बनाया है, सभी चराचर (जड़ व जीव) इस प्राण का भोजन हैं। (5.28)
मांस खाने, मद्यपान तथा मैथुन में कोई दोष नहीं। यह प्राणियों का स्वभाव है पर उस से परहेज़ में महाफल है।(5.56)
ब्राह्मणों द्वारा मंत्रों से पवित्र किया हुआ मांस खाना चाहिये और प्राणों का संकत होने पर अवश्य खाना चाहिये। (5.27)
ब्रह्मा ने पशुओं को यज्ञो में बलि के लिये रचा है इसलिये यज्ञो में पशु वध को वध नहीं कहा जाता। (5.39)
एक बार तय हो जाने पर जो मनुष्य (श्राद्ध आदि अवसर पर) मांसाहार नहीं करता वह इक्कीस जन्मो तक पशु योनि में जाता है। (5.35)
स्पष्ट है कि मनु न मांसाहार का निषेध नहीं किया और गोहत्या का भी कहीं निषेध नहीं किया।मनु के विधान में पाप कर्म दो प्रकार के हैं;1) महापातक: ब्रह्म हत्या, मद्यपान, चोरी, गुरुपत्नीगमन ये चार अपराध महापातक हैं।और 2) उपपातक: परस्त्रीगमन, स्वयं को बेचना, गुरु, माँ, बाप की उपेक्षा, पवित्र अग्नि का त्याग, पुत्र के पोषण से इंकार, दूषित मनुष्य से यज्ञ कराना और गोवध।
स्पष्ट है कि मनु की दृष्टि में गोवध मामूली अपराध था। और तभी निन्दनीय था जब गोवध बिना उचित और पर्याप्त कारण के हो। याज्ञवल्क्य ने भी ऐसा ही कहा है।
तो फिर आज के जैसी स्थिति कैसे पैदा हुई? कुछ लोग कहेंगे कि ये गो पूजा उसी अद्वैत दर्शन का परिणाम है जिसकी शिक्षा है कि समस्त विश्व में ब्रह्म व्याप्त है। मगर यह संतोषजनक नहीं है जो वेदांतसूत्र ब्रह्म के एकत्व की बात करते हैं वे यज्ञ के लिये पशु हत्या को वर्जित नहीं करते (2.1.28)। और अगर ऐसा है भी तो यह आचरण सिर्फ़ गो तक सीमित क्यों सभी पशुओं पर क्यों नहीं लागू होता?
मेरे विचार से ये ब्राह्मणों के चातुर्य का एक अंग है कि वे गोमांसाहारी न रहकर गो पूजक बन गए। इस रहस्य का मूल बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष में छिपा है। उन के बीच तू डाल डाल मैं पात पात की होड़ भारतीय इतिहास की निर्णायक घटना है। दुर्भाग्य से इतिहासकारों ने इसे ज़्यादा महत्व नहीं दिया है। वे आम तौर पर इस तथ्य से अपरिचित होते हैं कि लगभग 400 साल तक बौद्ध और ब्राह्मण एक दूसरे से बाजी मार ले जाने के लिए संघर्ष करते रहे।
एक समय था जब अधिकांश भारतवासी बौद्ध थे। और बौद्ध धर्म ने ब्राह्मणवाद पर ऐसे आक्रमण किए जो पहले किसी ने नहीं किए। बौद्ध धर्म के विस्तार के कारण ब्राह्मणों का प्रभुत्व न दरबार में रहा न जनता में। वे इस पराजय से पीड़ित थे और अपनी प्रतिष्ठा पुनः प्राप्त करने के प्रयत्नशील थे।
इसका एक ही उपाय था कि वे बौद्धों के जीवनदर्शन को अपनायें और उनसे भी चार कदम आगे बढ़ जायें। बुद्ध के परिनिर्वाण के बाद बौद्धों ने बुद्ध की मूर्तियां और स्तूप बनाने शुरु किये। ब्राह्मणों ने उनका अनुकरण किया। उन्होने शिव, विष्णु, राम, कृष्ण आदि की मूर्तियां स्थापित करके उनके मंदिर बनाए। मकसद इतना ही था कि बुद्ध मूर्ति पूजा से प्रभावित जनता को अपनी ओर आकर्षित करें। जिन मंदिरों और मूर्तियों का हिन्दू धर्म में कोई स्थान न था उनके लिए स्थान बना।
गोवध के बारे में बौद्धों की आपत्ति का जनता पर प्रभाव पड़ने के दो कारण थे कि एक तो वे लोग कृषि प्रधान थे और दूसरे गो बहुत उपयोगी थे। और उसी वजह से ब्राह्मण गोघातक समझे जाकर घृणा के पात्र बन गए थे।
गोमांसाहार छोड़ कर ब्राह्मणों का उद्देश्य बौद्ध भिक्षुओं से उनकी श्रेष्ठता छीन लेना ही था। और बिना शाकाहारी बने वह पुनः उस स्थान को प्राप्त नहीं पर सकता था जो बौद्धों के आने के बाद उसके पैर के नीचे से खिसक गया था। इसीलिए ब्राह्मण बौद्ध भिक्षुओं से भी एक कदम आगे जा कर शाकाहारी बन गए। यह एक कुटिल चाल थी क्योंकि बौद्ध शाकाहारी नहीं थे। हो सकता है कि ये जानकर कुछ लोग आश्चर्य करें पर यह सच है। बौद्ध त्रिकोटी परिशुद्ध मांस खा सकते थे।यानी ऐसे पशु को जिसे उनके लिए मारा गया ऐसा देखा न हो, सुना न हो और न ही कोई अन्य संदेह हो। इसके अलावा वे दो अन्य प्रकार का मांस और खा सकते थे- ऐसे पशु का जिसकी स्वाभाविक मृत्यु हुई हो या जिसे किसी अन्य वन्य पशु पक्षी ने मार दिया हो।
तो इस प्रकार के शुद्ध किए हुए मांस खाने वाले बौद्धों से मुकाबले के लिए मांसाहारी ब्राह्मणों को मांस छोड़ने की क्या आवश्यक्ता थी। थी, क्योंकि वे जनता की दृष्टि में बौद्धों के साथ एक समान तल पर खड़े नहीं होना चाहते थे। यह अति को प्रचण्ड से पराजित करने की नीति है। यह वह युद्ध नीति है जिसका उपयोग वामपंथियों को हटाने के लिए सभी दक्षिणपंथी करते हैं।
एक और प्रमाण है कि उन्होने ऐसा बौद्धों को परास्त करने के लिए ही किया। यह वह स्थिति बनी जब गोवध महापातक बन गया। भण्डारकर जी लिखते हैं कि, "हमारे पास एक ताम्र पत्र है जो कि गुप्त राजवंश के स्कंदगुप्त के राज्यकाल का है। यह एक दान पात्र है जिसके अंतिम श्लोक में लिखा है : जो भी इस प्रदत्तदान में हस्तक्षेप करेगा वह गो हत्या, गुरुहत्या, या ब्राह्मण हत्या जैसे पाप का भागी होगा।" हमने ऊपर देखा है कि मनु ने गोवध को उपपातक माना है। मगर स्कन्द गुप्त के काल (412 ईसवी) तक आते आते महापातक बन गया।
हमारा विश्लेषण है कि बौद्ध भिक्षुओ पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए ब्राह्मणों के लिए यह अनिवार्य हो गया था कि वे वैदिक धर्म के एक अंश से अपना पीछा छुड़ा लें। यह एक साधन था जिसे ब्राह्मणों ने अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पाने के लिए उपयोग किया।
गोमांस भक्षण से छितरे व्यक्ति अछूत कैसे बने?
जब ब्राह्मणों तथा अब्राह्मणों ने गोमांस त्याग दिया तो एक नई स्थिति पैदा हो गई। जिसमें सिर्फ़ छितरे लोग ही गोमांस भक्षण कर रहे थे। यदि गोमांसाहार मात्र व्यक्तिगत अरुचि अरुचि का प्रश्न होता तो गोमांस खाने और न खाने वालों के बीच कोई दीवार न खडी होती मगर मांसाहार एक लौकिक बात न रहकर धर्म का प्रश्न बन गया था।
ब्राह्मणों ने जीवित और मृत गो में भेद करने की किसी प्रकार की आवश्यक्ता नहीं समझी। गो पवित्र थी चाहे मृत या जीवित। यदि कोई गो को पवित्र न माने और तो वह पाप का भागी होगा। तो छितरे लोग जिन्होने गोमांसाहार जारी रखा, पाप के भागी हुए और अछूत बन गए।
इस मत पर कुछ आपत्तियां हो सकती हैं। पहली तो यह कि इस बात का क्या प्रमाण है कि छितरे लोग गोमांस खाते थे?
इसका जवाब यह है कि जिस समय बसे हुए लोग और छितरे लोग दोनों गोमांसाहारी थे तो तो एक परिपाटी चल निकली जिसके तहत बसे हुए लोग गो का ताज़ा मांस खाते और छितरे लोग मृत गाय का। मरी हुई गो पर छितरे हुए लोगों का अधिकार होता था। महाराष्ट्र के महारों से सम्बन्धित इस साक्ष्य की चर्चा पहले भी की जा चुकी है। महाराष्ट्र के गाँवों में हिन्दू लोगों को एक समझौते के तहत अपने मृत पशुओं महारों को सौंपना पड़ता है। कहते हैं कि बीदर के मुस्लिम राजा ने ऐसे 52 अधिकार उन्हे दे दिये। ऐसी कोई और वजह नहीं लगती कि बीदर के राजा अचानक ये अधिकार महारों को दे दे सिवाय इसके कि ये अधिकार उनके पास पहले से चले आ रहे थे जिन्हे उन्हे दुबारा पक्का कर दिया गया।
बसे हुए लोग धनी थे। उनकी जीविका के लिए खेती और पशुपालन थे। मगर छितरे हुए लोग निर्धन थे और उनकी जीविका के साधन भी न थे। इस तरह का प्रबन्ध स्वाभाविक लगता है जिसमें छितरे हुए लोगों ने बसे हुए लोगों की पहरेदारी के बदले मृत जानवरों पर अधिकार की मज़दूरी स्वीकार की। और ऐसा सम्पूर्ण भारत में हुआ होगा।
दूसरी आपत्ति यह कि जब ब्राह्मणों और अब्राह्मणों ने गोमांस छोड़ा तो छितरे लोगों ने भी क्यों न छोड़ दिया?
यह सवाल प्रासंगिक है मगर गुप्त काल में गोवध के खिलाफ़ जो कानून आया वह छितरे लोगों पर इस लिए लागू नहीं हो सकता था क्योंकि वे मृत गो का मांस खाते थे। और उनका आचरण गोवध निषेध के विरुद्ध नहीं पड़ता था। और अहिंसा के विरुद्ध भी नहीं। तो छितरे लोगों का यह व्यवहार न नियम के विरुद्ध हुआ न सिद्धान्त के।
और तीसरी, यह कि इन छितरे लोगों ने ब्राह्मणों का अनुकरण क्यों न किया? उन्हे गोमांस खाने से रोका भी तो जा सकता था, अगर ऐसा हुआ होता तो अस्पृश्यता का जन्म ही न होता?
इस प्रश्न के जवाब के दो पहलू हैं। पहला तो यह कि नकल करना उनके लिए अत्यन्त मँहगा सौदा था। मृत गो का मांस उनका जीवनाधार था। इसके बिना वे भूखे मर जाते। दूसरा यह कि मृत गायों का ढोना जो पहले एक अधिकार था बाद में एक कर्तव्य में बदल गया(सुधार आन्दोलन के बाद महार मृत गो उठाने से मना करते हैं पर हिन्दू उन्हे मजबूर करते हैं)। तो जब मृत गो को उठाने से कोई मुक्ति नहीं थी इसलिये उस मृत पशु के जानवर को खाने के लिए इस्तेमाल करने से उन्हे ऐतराज़ न था जैसा वे पहले करते ही थे।
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