कोलकाता की संत टेरेसा और
अविद्या के अहंकार का महातिलिस्म धर्मोन्मादी राष्ट्र
पलाश विश्वास
आज कोलकाता के अखबारों में मातृसत्ता की जयजयकार है और बाकी देश के मीडिया में भी सुर्खियों में कोलकाता की मां संत टेरेसा है।महिषासुर और असुर विमर्श के संदर्भ में निवेदन है कि मेरी बंगाल के दुर्गा भक्तों से हाल के वर्षों में बहस होती रही है और उनमें से एक बड़े हिस्से का भी मानना है कि मातृसत्ता की दुर्गा प्रतिमा से महिषासुर वध प्रकरण को अलहदा करने की जरुरत है।
इस विमर्श का प्रस्थानबिंदू यही है कि अविद्या के अहंकार का महातिलिस्म राष्ट्र है और यही अविद्या राष्ट्र पर काबिज पूंजी है।सत्ता वर्ग की लोकतंत्र विरोधी फासिस्ट निरंकुश सत्ता भी वही अविद्या है जो मुक्तबाजारी माया का संसार है तो ज्ञानविरोधी अस्मितापरक विमर्श में लोकतंत्र और जनवाद का विध्वंस है।
आम जनता की तकलीफों और रोजमर्रे की नरकयंत्रणाओं के मूल में भी सत्ता समर्थित इस अविद्या की संस्थागत संरचना है,जो कुल मिलाकर पितृसत्ता की नरसंहारी नस्ली संस्कृति है।इसे सिरे से तोड़े बिना कोई परिवर्तन या परिवर्तन का सपना भी असंभव है।
महिषासुर वध के प्रक्षेपण को अलग कर दें तो मातृसत्ता अनार्य द्रविड़ असुर विरासत है,जिसका भारतीयकरण हुआ है।
इसी मातृसत्ता का आवाहन का महोत्सव बंगाल में धर्मनिरपेक्ष दुर्गोत्सव है और कोलकाता की संत मां टेरेसा को अनार्य बंगाल इसी दुर्गा प्रतिमा में स्थापित कर रहा है,उनके ईसाई मिशनरी होने से कोई फर्क नहीं पड़ा है।
जाहिर है कि महिषासुर वध की नरसंहारी संस्कृति और मनुस्मृति आधारित मिथक का विरोध अनिवार्य है क्योंक यह मिथक अपने आप में बंगाल के इतिहास,भूगोल,लोक परंपरा और विरासत के खिलाफ है।तो यह भारतीयता के आध्यात्म और धर्म निरपेक्ष जनवादी लोकतंत्र के खिलाफ भी मिथ्या का सर्वव्यापी तंत्र मंत्र यंत्र है।
दुर्गापूजा की धर्मनिरपेक्ष मातृसत्ता अनार्य द्रविड़ नृवंश की निरंतरता है,जो असुर संस्कृति भी है पितृसत्ता के ब्राह्मणधर्म के खिलाफ।
हमारे विद्वान मित्र इस पर गौर करें कि मातृसत्ता के आवाहन का विरोध करके कहीं वे कहीं पितृसत्ता के ब्राह्मण धर्म की निरंतरता का आत्मघाती अस्मिता युद्ध में निष्णात तो नहीं हो रहे हैं।यह आत्मालोचना निहायत जरुरी है अगर वे बदलाव के हक में हैं।
हम मातृसत्ता के विरोध को आत्मध्वंस मानते हैं।बंगाल में हाल के परिवर्तनों से लेकर सामंतवाद, साम्राज्यवाद और यहां तक कि ब्राह्मणवाद और पितृसत्ता के विरोध की मातृ आराधना की लोक परंपरा पर हम नये सिरे से संवाद कर सकें तो बेहतर।
मां टेरेसा के कोलकाता के संत बन जाने के मौके से बेहतर कोई अवसर नहीं है कि हम मातृसत्ता के जनवाद और लोकतंत्र पर नये विमर्श की शुरुआत करें।
कोलकाता में दक्षिणेश्वर और कालीघाट की काली के अलावा एक और काली है,एटंनी फिरंगी की काली।एंटनी फिरंगी जाहिर है कि भारतीय नहीं थे और वे जन्मसूत्र से अंग्रेज भी नहीं थे।वे भारत में पुर्तगीज विरासत के वारिस थे और उन्होंने सती दाह से बचाकर एक हिंदू विधवा से विवाह कर लिय़ा था,हिंदुत्ववादियों ने फिर एंटनी की अनुपस्थिति में उस विधवा का अपहरण करके उसे जिंदा जला दिया था।
यही एंटनी फिरंगी की व्यथा कथा है जो उन्होंने कवि गान में जिया है। उन्होंने बांग्ला कविगान में अपना जीवन समर्पित किया तो वे मां काली के उपासक भी थे।
एंटनी फिरंगी के इस आख्यान का मंगल पांडे पर बनी फिल्म में अच्छा उपयोग किया गया है।क्योंकि भारत की पहली स्वतंत्रता संग्राम के खिलाफ था बंगाल का ब्राह्मण तंत्र और उसकी निरंकुश निर्ममता का आइना यह आख्यान है जो फिर फिर लौटकर आ रहा है और गुजरात के वधस्थल तक उसकी निरंतरता है जो ब्राह्मण धर्म का पुनरुत्थान है।विडंबना है कि भारतभर में इसकी पुनरावृत्ति का मुक्तबाजारी वैश्विक उपक्रम है।
जाहिर है कि एटंनी फिरंगी की काली पूजा दैवी काली की आध्यात्मिक उपासना नहीं है,बल्कि मातृसत्ता के लोक में गहरे पैठकर लोक गीतों के अंतःस्थल में गहरे पैठने की धर्मनिरपेक्ष रचना प्रक्रिया है।बंगाल में प्राकृति विपदाओं से बचने के लिए रक्षा काली की पूजा बंगाल में ब्राह्मण धरम से पहसे शिव की उपसना के साथ होती रही है।चंडी तो उसे बाद में बनाया गया है और चंडी बनकर ही काली रणचंडी है।
इसमें कोई शक नहीं है कि जो भी कुछ हम भारतीय बताते हैं,उसका मूल स्रोत अनार्य द्रविड़ लोक जीवन है।अनार्य द्रविड़ संसाधनों,सभ्यता और विरासत का भारतीयकरण हिंदुत्व के एकीकरण अभीयान के तहत इसीतरह होता रहा है।
जैसे ढाई हजार सा पहले बौद्ध धम्म और जैन धर्म के दर्शन को आत्मसात करके ब्राह्मण धर्म सनातन वैदिकी कर्म कांड से अलग होकर हिंदुत्व में आहिस्ते आहिस्ते आकार लेता रहा विविधता और बहुलता को आत्मसात करते हुए,वैसे ही लोक पंरपराओं और विरासत का लोक जीवन का भी समायोजन हिंदुत्व में हुआ है और अनार्य द्रविड़ मातृसत्ता का भी हिंदुत्वकरण हुआ है लोक देवियों के चंडी रुप में आवाहन और सतीपीठों के माध्यम से।
विडंबना है कि ब्राह्मण धर्म ने मातृसत्ता का आवाहन भी हमेशा पितृसत्ता को मजबूत बनाकर मनुस्मृति अनुशासन और सख्ती से लागू करने की रणनीति के तहत सुनियोजित रंगभेद की पितृसत्ता के तहत किया है और अपनी विरासत की जड़ों से कटे हुए हमें ठीक से भी मालूम नहीं है कि किस बिंदू पर विरोध करें और किस पर विरोध न करें।हमें मालूम भी नहीं है कि मातृसत्ता हमारी विरासत है और ब्राह्मणधर्म स्त्री को शूद्र बनाकर स्त्री अस्मिता के निषेध पर आधारित मातृसत्ता का निरंकुश दमन है।
काली और दुर्गा के मिथकों में अंततः निग्रोइड द्रविड़ और असुर विरासत की ही निरंतरता है और इसे महिषासुर वध से जोड़कर उसका ब्राह्मणीकरण कर दिया गया है।
इस प्रस्थान बिंदु पर मातृसत्ता की धर्मनिरपेक्षता और सामंती साम्राज्यवादी व्यवस्था के विरुद्ध इस मातृसत्ता के प्रतिरोध की जमीन को पहचानने की बहुत जरुरत है।
बुद्धमय बंगाल में हिंदुत्वकरण के बाद आक्रामक वर्चस्ववादी रंगभेदी जाति व्यवस्था के कठोर मनुस्मृति अनुशासन लागू कर दिये जाने से ब्राह्मणधर्म का सामंतवाद कितना भयंकर था,यह शरत साहित्य में सिलसिलेवार है और रवींद्र ने इसका दार्शनिक और रचनात्मक तौर पर बौद्ध दर्शन की लोक परंपरा के तहत खूब प्रतिरोध किया है।चंडालिका से लेकर रथेर रशी और राशियार चिठि से लेकर गीतांजलि तक नास्तिकता का दर्शन बौद्ध परंपरा या चार्वाक चिंतन या फिर वेदांत आधारित जीवन दर्शन है रवींद्र का।
राजा राममोहन राय से लेकर माइकेल मधुसूदन दत्त के मेघनाद वध काव्य में राम को खलनायक रुप में दिखाकर मेघनाद के नायकत्व को बांग्ला राष्ट्रीयता की अस्मिता बन जाने के निरीश्वरवाद और बाद में रामकृष्ण परमहंस और स्वामी विवेकानंद के वेदांत,सर्वेश्वरवाद और ब्राह्मण धर्म की कुप्रथार्ओं के खिलाफ नवजागरण के सुधार आंदोलन के निरीशवरवाद और नास्तिकता को सिलसिलेवार देखने की जरुरत है।
और यह भी समझने की जरुरत है कि कर्म कांडी ब्राह्मण धर्म के खिलाफ दयानंद सरस्वती का आर्य समाज आंदोलन दर असल बंगाल के नवजागरण का सर्व भारतीय विस्तार है और इन्हीं प्रक्रियाओं के तहत बंगाल और पंजाब में केंद्रित बहुजन समाज का वास्तविक उत्थान है,जिसे हम गायपट्टी और महाराष्ट्र में ही सीमाबद्ध मान और देख रहे हैं और इसकी सर्व भारतीय विरासत,बंगीय भूमिका को समझने से इंकार कर रहे हैं।
बाकी भारत के लोगों को 19वीं सदी के पुर्तगीज मूल के साहब एंटनी फिरंगी की कथा शायद ही मालूम हो,जिसने सतीदाह से बचाकर विधवा विवाह करने के बावजूद कंपनी राज में जमींदारियों और ब्राह्मण धर्म के कट्टरपंथ से लड़ने के लिए बंगाल की प्राचीन अनार्य द्रविड़ काली की उपासना को सामंतवाद के खिलाफ अपना अचूक हथियार बना लिया,जो उनके कवि गान की भी लोक जमीन है।एंटनी फिरंगी पर बनी लोकप्रिय फिल्म में एंटनी उत्तम कुमार बने तो उनकी प्रेमिका बनी हिंदी फिल्मों की तनूजा।
हाल में मशहूर बांग्ला फिल्मकार सृजित मुखर्जी ने एंटनी फिरंगी के अंतर्द्वंद्व,उनके प्रेम, उनके आध्यात्म और उनकी रचनाधर्मिता के आधुनिक परिप्रेक्ष्य में पुनर्जन्म की कथा लिखकर एक राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म जातिस्मर बनायी है।
पिछले जन्म की यादों पर केंद्रित सत्यजीत राय की फिल्म सोनार केल्ला के बारे में कमोबेश सबको मालूम है,लेकिन सृजित की इस फिल्म में एंटनी बने प्रसेनजीत और उनकी प्रमेमिका बनी भूतेर भविष्यत् की स्वस्तिका मुखोपाध्याय के मार्फत 19वीं सदी के उस सामंती समाज को आज के मुखातिब कर दिया है।
इस फिल्म में कबीर समुन भी हैं।यह उत्तर आधुनिक बंगाल के आइने में बंगाली राष्ट्रीयता की विकास यात्रा को परदे पर उतारने की बेहतरीन कोशिश है।
ये दोनों फिल्में अगर आप देख लें तो बंगाल में लोक जीवन और रचनात्मकता के विविध लोकायत आयाम खुल सकते हैं।
मदर टेरेसा के बंगाल में इस तरह सार्वजनीन मां बन जाना और पश्चिमी मीडिया में उनकी सेवा के जरिये कोलकाता के नारकीय बस्ती चित्रों की निरंतरता के बावजूद उनकी मिशनरी गतिविधियों की निर्विकल्प स्वीकृति दरअसल उसी परंपरागत अनार्य द्रविड़ बौद्ध मातृसत्ता का विस्तार है जो मां टेरेसा के कोलकाता की संत बन जाने से अब वैश्विक है।इसके सकारात्मक पक्ष को धर्म सत्ता के संदर्भ से अलग रखकर समझना भी बेहद जरुरी है इस कयामती फिजां के माहौल में।
अंध धर्मोन्मादी हिंदू राष्ट्र के सैन्यीकरण और निरंकुश सत्ता के संदर्भ में मातृसत्ता का यह आवाहन और महोत्सव भारतीयता का असल यथार्थ चेहरा है,जिसकी अखंड भाव भूमि और लोक परंपरा में मां टेरेसा का कोलकाता का संत बनना हुआ है।
सामंतवाद और साम्राज्यवाद के प्रतिरोध में मुक्तबाजारी नरसंहारी तानाशाही की संस्कृति के खिलाफ इसी मातृसत्ता की धर्म निरपेक्षता और प्रगतिशीलता में भारत में अनार्य द्रविड़ इतिहास के रेशम पथ है,जहां से होकर हम फिर मोहनजोदाड़ो और हड़प्पा की सिंधु सभ्यता तक पहुंच सकते हैं।इसी इतिहास को बदला जा रहा है।
गौरतलब है कि भारत विभाजन के तहत सत्ता पर काबिज ब्राह्मणवादी मनुस्मृति धर्मोन्मादी राष्ट्रवाद ने मोहंजोदाड़ो और हड़प्पा का विभाजन करके हमें इस रेशम पथ से बेदखल कर दिया है।यह दो राष्ट्रों का सिद्धांत नहीं है,सीधे तौर पर ब्राह्मण धर्म का यह पुनरुत्थान है जो एकमुश्त बौद्ध धम्म,जैनधर्म और सिख धर्म की गुरु परंपराओं के साथ साथ नवजागरण और आर्य समाज आंदोलन का निषेध और बजरंगी हिंदुत्व है।
महिष्सुर वध की कथा के इतिहास के मद्देनजर हम नरसंहारी संस्कृति का जितना विरोध करते हैं,उससे अगर मातृसत्ता के जनवाद और लोकतंत्र की भारतीयता को पृथक करने का हम कोई विमर्श शुरु कर सकें तो जैसे हमने लिखा है,बंगाल में कट्टर दुर्गाभक्तों को दुर्गापूजा में महिषासुर वध के मिथक के बहिस्कार से कोई खास ऐतराज नहीं है।
इसी सिलसिले में कहना होगा कि हम हिंदू राष्ट्रवाद में जो धर्मोन्माद देख रहे हैं,उसका भारतीय दर्शन परंपरा से कोई लेना देना नहीं है और न ही भारतीय आध्यात्म और लोक से उसका कोई लेना देना है, और न ही वेद वेदांत से।
यह मिथ्या मिथकों का तिलिस्म अविद्या के मायाजाल का मुक्तबाजारी अमावस्या है।इसके विपरीत भारतीयता संघ परिवार के हिंदुत्व और ब्राह्मणधर्म के मनुस्मृति अनुशासन के विरुद्ध एक ही साथ द्वैत और अद्वैत दोनों है और सर्वेश्वर वाद के वेदांत तक जिसका विस्तार है जो रवींद्र नाथ, नेताजी औस स्वामी विवेकानंद जैसे शूद्र मनीषियो का जीवन दर्शन है और जिसकी भावभूमि ही मां टेरेसा की कोलकाता की संत होने की कथा है।तो 19 वीं सदी के यह एंटनी फिरंगी के कविगान की कथा व्यथा भी है।
भारतीय सांख्य दर्शन अपने प्राचीनत्व के बावजूद बहुत प्रांसगिक है और उसकी वैज्ञानिक दृष्टि हैरतअंगेज है,जो यहां तक कि द्वांद्वात्मक भौतिकवाद और इतिहास की भौतिकवाद की सीमाबद्धता को तोड़ने तक में मददगार साबित हो सकती है।
वैसे भी भारतीय दर्शन चरित्र से अवधारणात्मक होने के बजाय काफी हद तक व्यवहारिक है और जनजीवन में आचरण,व्यवहार ,समाज और राष्ट्र निर्माण में उसकी सक्रिय भूमिका हमेशा रही है।
इसी परंपरा में ही तथागत गौतम का बौद्ध धम्म, जैन धर्म और यहां तक कि सिख धर्म में आचरण और अनुशीलन की सामाजिकता और सत्य,अहिंसा और प्रेम का वैश्विक मानवबंधन है,जिसका नये सिरे से नवजागरण जरुरी है।
लोक जीवन में भारतीय दर्शन की सर्वोत्तम अभिव्यक्ति है,जिस हम आध्यात्म कहकर अक्सर खारिज कर देने की गलती करते हुए बदलाव के मिशन,समता और न्याय की मंजिल हासिल करने,जल जंगल जमीन आजीविका नागरिकता नागरिक और मानवाधिकार, मेहनतकशो की हक हकूक की लडाई में अपने इतिहास और विरासत की जमीन पर खड़े होने से सीधे इंकार कर देते हैं।यह आत्मघाती अविद्या है।
गौरतलब है कि बाबासाहेब ने मनुस्मृति बंदोबस्त को मजबूत बनाने वाले महाकाव्यों और पुराणों के मिथकों का खंडन किया है और इन्हें छोड़ भारतीय दर्शन परंपरा की मनुस्मृति जैसी आलोचना नहीं की है और दहन उन्होंने सिर्फ मनुस्मृति का किया है।
गौरतलब है कि वैदिकी साहित्य को पढ़ने या शिक्षा के अधिकार से वंचित होने के बावजूद हमारे लोक जीवन में भारतीय दर्शन के मुताबिक आम जनता के व्यवहार,आचरण और सामाजिकता में कोई व्यवधान नहीं है।शाश्वत निरंतरता है और भारत का वजूद यही है।
जैसे ब्राह्मणों के द्विज बनने के लिए दीक्षा जरुरी है,शूद्रों और अछूतों में,आदिवासियों में भी दीक्षित होने की परंपरा है और इस मामले में गुरुओं की निश्चित भूमिका रही है।
भारतीय संत परंपरा ने भारतीय सामाजिक जीवन में इसी दर्शन पंरपरा की व्यावहारिकता के आध्यात्म के नाम संप्रेषित किया है।
संत बाउल पीर फकीर का साझा चूल्हा इसीतरह भारत को भारत तीर्थ बनाता रहा है।
दो दिन पहले भुवनेश्वर से अभिराम मलिक ने दार्शनिक रजनीश ओशो का गुजरात के आरक्षणविरोधी आंदोलन के संदर्भ में हिंदू राष्ट्रवाद के दुराग्रह के खिलाफ समता और न्याय के पक्ष में प्रवचन का वीडियो शेयर किया है।अद्भुत दार्शनिक रजनीश ने भी हजारों साल से शूद्रों और अछूतों की शिक्षा के अधिकार से वंचित करने की ब्राह्मणधर्म के मनुस्मृति अनुशासन को समता और न्याय के रास्ते में सबसे बड़ा अवरोध बताया है।
सांख्य दर्शन के मुताबिक पुरुष और प्रकृति को सृष्टि का दो मूल तत्व बताया गया है।पुरुष ही सांख्य दर्शन के मुताबिकआत्मा हैजो देह,मन,इंद्रिय,बुद्धि या जड जगत का कोई वस्तु नहीं है।पुरुष की अभिव्यक्ति चेतना है।जबकि जड़ जगत की भौतिकता प्रकृति है।यही द्वंद्वात्म भौतिकवाद की नींव है।
अविद्या के अहंकार का महातिलिस्म धर्मोन्मादी राष्ट्र पुरुष और प्रकृति के संजोग से ही सृष्टि की सिंथेसिस है।
पुरुष और प्रकृति को लेकर सांख्य कुल पच्चीस हैं।
यह सांख्य दर्शन गौर करें, निरीश्वर वादी है और इसमें चार्वाक दर्शन परंपरा की निरंतरता है।पुरुष और प्रकृति का अविवेक अर्थात अभेद ज्ञान ही पुरुष यानी चेतना का बंधन है।
सांखय दर्शन के मुताबिक यही अविवेक, चेतनाहीनता ही बंधन और दुःख का कारण है। भारतीय दर्शन में आम तौर पर इसे फिर माया का बंदन कहा गया है।
सांख्यदर्शन के मुताबिक दुःख निवारणके लिए विवेकज्ञान और प्रकृति और पुरुष का भेद ज्ञान अनिवार्य है।विवेक ज्ञान से ही दुःखों से निवृत्ति का मार्ग है।
गौरतलब है कि भारतीय दर्शन और संत परंपरा धर्म निरपेक्ष प्रगतिशील विवेक या चेतना की वैज्ञानिक दृष्टि और प्रज्ञा का निरंतर अनुसंधान और अनुशीलन है,साधना परंपरा है और जनजागरण अभियान भी है,जिसे हम आध्यात्म कहते हैं।
इसी प्रस्थाबिंदू पर फिर सर्वेश्वरवाद और वेदांत दर्शन है जो हमें नर में नारायण देखने की सम्यक दृष्टि से समृद्ध करती है और रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद के इस वेदांत और सर्वेशवर वाद में फिर अनार्य द्रविड़ मातृसत्ता का आवाहन है।
चेतना के लिए नव जागरण में ही भारत में नास्तिकता के आधार पर जैन और बौद्ध धर्म है तो समूची चार्वाक चिंतन परंपरा है और बौद्ध दर्शन के मुताबिक भी दुःख और अविद्या तक बारह निदान हैं।
बौद्ध दर्शन के मुताबिक भी दुःख की मूल वजह अविद्या है।
चार्वाक दर्शन में फिर भौतिकवादी व्याख्या के तहत ईश्वर से लेकर पुनर्जन्म, कर्मफल, लोक परलोक,स्वर्ग नर्क और कर्मकांड के ब्राह्मण धर्म का खंडन है जो अंध राष्ट्रवाद और उसके मिथक औक कुसंस्कारों पर आधारित मिथकीय वैदिकी और बाद में बुद्धमय भारत के अवसान के बाद मनुस्मृति अनुशासन के प्रतिरोध में अखंड जनजागरण है।
इसी तरह जैन धर्म में भी जीव को चेतना की अभिव्यक्ति के रुप में देखा गया है।
इन तमाम बिंदुओं पर सिलसिलेवार विमर्श जरुरी है।
इस अनिवार्य विमर्श में फिर बाधा ज्ञानविरुद्ध अविद्या का धर्मोन्मादी अंध राष्ट्रवाद है।दरअसल अविद्या के अहंकार का महातिलिस्म ही अंध धर्मोन्मादी राष्ट्र है और यही माया और मिथ्या का अखंड वर्चस्ववादी मुक्ताबाजारी आक्रामक विध्वंसक रंगभेद है।जो असल में फासिस्ट वैश्विक रंगभेदी नरसंहार संस्कृति है और हम उसके उपनिवेश हैं।
इसी संदर्भ में हड़प्पा और मोहनोजोदाडो़ के रेशम पथ का नया आविष्कार जितना अनिवार्य है,उससे भी ज्यादा अनिवार्य है कि पितृसत्ता के इस ब्रह्मण धर्म के प्रतिरोध में मातृसत्ता का नवजागरण हो और इसी सिलसिले में महिषासुर विमर्श पर मातृसत्ता की धर्मनिरिपेक्षता के संदर्भ में नये सिरे से संवाद अनिवार्य है।
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