9 जून 1900 बिरसा मुंडा शहादत दिवस-उलगुलान का अंत नहीं
नदी के बहते पानी में, हवा में, जंगल के कंटीले फूलों में, खेतों में ,खलिहानों में, गीत में, संगीत में शहीदों के अरमान जिंदा हैं।
देश में जब इस्ट इंडिया कंपनी ने अपना व्यापार को फैलाते हुए-देश को गुलामी के सिकांजे में जकड़ लिया और देश की आजादी गुलाम हो गयी । जैसे जैसे अंग्रेजों ने छोटानापुर इलाके में पांव पासारते गये-जल-जंगल-जमीन पर अंगे्रज हुकूमत ने कब्जा जमाता गया। स्वतंत्रता संग्राम के राजनीतिक क्षितिज में जब गांधीजी का स्वाराज का सपना जन्म ले रहा था-उस समय झारखंड के आदिवासी -संताल परगना इलाके में 1800 के दशक में सिद्वू-कान्हू, तिलका मांझी, हो -इलाके से सिंदराय-बिदराय ने अंग्रेजो के छक्के छुड़ा दिये थे। 1900 के दशक में मुंडा इलाके बिरसा उलगुलान ने अंगे्रजों के खिलाफ समझौता विहीन अबुआः राईज के संघर्ष का परचम लहराया। 'आज सरकार की जनविरोधी नीति, जनविरोधी विकास मोडल, पूजीपतियों द्वारा जल-जंगल-जमीन-नदी-पहाड़ पर कब्जा -शहीदों के अबुअः दिशुम रे अबुअः राईज का सपना( हमर देश में हमर राईज, हमारे देश में हमारा राज्य) को कुचलने के काम कर रहा है। लेकिन हमें गर्व है-अपने इतिहास पर, अपने पहचान पर, आज भी पूरे झारखंड में आदिवासी-मूलवासी-किसान अपने जल-जंगल-जमीन बचाने के लिए संघर्षरत हैं। शहादत दे रहे हैं, लेकिन घुटना टेकना पंसद नहीं है-बिरसा मुंडा ने कहा था-संघर्ष का हथियार मैं तुम्हें देकर जा रहा हुं-जब जब समाज-राज्य में संकट आये तुम इसका इस्तेमाल करो।
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